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४२. उत्तम-त्याग
( १. त्याग व ग्रहण; २. आदर्श त्याग।
१. त्याग व ग्रहण-अहो त्याग-मूर्ति वीतरागी गुरुदेव ! सर्व बाह्य परिग्रह के, अन्तरंग विकल्पों के तथा अभिलाषाओं के पूर्ण त्याग-आदर्श ! मेरे जीवन को भी शान्ति-प्रदायक यह त्याग प्रदान करो। अचिन्त्य है महिमा इस त्याग की, शान्ति की खान है यह । धन-धान्यादि के ग्रहण में आज हम कुछ सुख की महिमा देखते हैं, पर एक वह जीवन भी है जो इसमें साक्षात् दुःख देखता है। अभिप्राय के फेर से विष भी अमृत भासने लगता है, क्रोध कषाय जागृत होने पर मृत्यु भी इष्ट हो जाती है । कितना बड़ा अन्तर है दोनों के जीवन में ? एक वह जीवन है जिसमें से यह पुकार निकल रही है कि 'और ग्रहण कर, और ग्रहण कर', और एक वह जीवन है जो मूक भाषा में कह रहा है कि 'और त्याग कर, और त्याग कर ।' एक वह जीवन है जो कह रहा है कि 'धनादि सम्पदा में सुख है, इसमें ही सुख है', और एक वह जीवन है जो कह रहा है कि इसमें ही दुःख है, इसमें ही दुःख है।' एक वह जीवन है जो कह रहा है कि इसके बिना मेरा काम नहीं चलेगा', और एक वह जीवन है जो कह रहा है इसके रहते हुए मेरा काम नहीं चलेगा।' एक वह जीवन है जो कह रहा है ‘धन चाहिए, 'धन चाहिए' और एक वह जीवन है जो कह रहा है कि 'धर्म चाहिए, धर्म चाहिये।' अहो ! अभिप्राय का माहात्म्य । नुकते के हेर-फेर से 'खुदा' से 'जुदा' हो जाता है। ऊपर का नुकता नीचे कर देन मात्र से उर्दू में लिखा 'खुदा' शब्द 'जुदा' पढ़ा जाता है । इसी प्रकार शान्ति पर से अभिप्राय को हटाकर सम्पदा पर लगा देने से सच्चिदानन्द स्वरूप तू व्याकुलता की विकराल दाढ़ का चबीना बन जाता है।
यह कैसे अनुभव में आवे कि ग्रहण में दुख है ? जब एक क्षण को भी किंचित् मात्र निराकुलता का स्वाद न चख ले तब तक कैसे पता चले कि इसमें दुःख है ? भले गुरुदेव के कहने पर कह दूं कि हाँ हाँ यह दुःखों का मूल है, पर अन्तरङ्ग में तो ऐसा नहीं भासता । कैसे भासे? निराकुलता से व्याकुलता में जाये तो पता चले कि व्याकुलता में आया है, पर व्याकुलता छोड़कर पुन: व्याकुलता में ही जाए तो कैसे पता चले कि व्याकुलता है यह ? यदि धनोपार्जन की व्याकुलता को छोड़कर उसकी रक्षा की व्याकुलता में घुस गया तो बात तो ज्यों की त्यों ही रही । उल्लू सदा अन्धकार में रहता है, क्या पता बेचारे को कि यह अन्धकार है ? उसके लिए तो वही प्रकाश है । यही तो हालत है मेरी आज, कैसे पता चले कि ग्रहण में दुःख है ? कुछ थोड़ा-सा त्याग करके देखें तो पता चले कि इतने से त्याग से जब कुछ शान्ति आई है तो तो पूर्णत्याग करके इस योगी को कितनी शान्ति आई होगी। आज मुझे त्याग में कष्ट प्रतीत होता है और इसीलिए योगी के जीवन को कष्ट का जीवन मानता हूँ। किंचित् त्याग करके देखू तो पता चले कि त्याग-मूर्ति इन योगीश्वरों का जीवन कितना सुखी है।
'अपरिग्रह' नामक ३३ वें अधिकार में एक साधु का दृष्टान्त दिया है जिसमें एक साधारण सी ऐलुमिनयम की कटोरी भी उसके लिए भार बन गई। उसे त्यागकर उसने सन्तोष की सांस ली। त्याग से ग्रहण में आकर ही पता चला साधु को कि कितना दुःख है ग्रहण में, इसी प्रकार ग्रहण से त्याग में आकर ही पता चल सकता है कि कितना सुख है त्याग में । योगी का जीवन कष्ट में नहीं शान्ति के झले में झलता है, अभिप्राय बदल चुका है उसका । शान्ति के स्वाद के सामने कौन पड़े इस जंजाल में, चुपड़ी खाने वाले को कैसे रुचे कच्चे चने चबाना? कोई ढेर भी लगा दे उनके सामने स्वर्ण या हीरों का तो आकर्षण की तो बात नहीं, उसे उपसर्ग समझें। उन पर दया करके, 'हाय, बेचारे ठिठुर रहे हैं सर्दी के मारे, एक कम्बल ओढ़ा दो उन्हें', ऐसा विचारकर अपने शरीर पर से कम्बल उतारकर उनके शरीर पर डाल दो, और समझ बैठो हृदय में कि चैन पड़ गई होगी उन्हें । यह उनसे पूछो कि क्या बीत रही है उनके हृदय पर, एक बड़ा भारी उपसर्ग आ पड़ा है मानो । उनकी शान्ति घाती गई है, विकल्प उठ गये हैं।
राजपुत्र थे दो । दोनों सहोदर भाई । वैरागी हो गए पर अभिप्रायों में महान अन्तर । दोनों ही ने स्वयं राज्य छोड़ा, सम्पदा छोड़ी, परन्तु अन्दर में एक समझता रहा यह कि उसमें सुख है और एक ने समझ लिया यह कि उसमें दुःख है ।
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