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________________ ४२. उत्तम-त्याग २८२ २. आदर्श-त्याग फलितार्थ, एक करने लगा शान्ति रस की सिद्धि और दूसरा करने लगा स्वर्ण रस की सिद्धि । दोनों ही सफल हो गए अपने-अपने प्रयोग में । एक को शान्ति-रस के साथ-साथ मिल गई उसकी दासी भी अर्थात् स्वर्ण बनाने की ऋद्धि भी, और दूसरे को मिला केवल दास, स्वर्ण-रस । ऋद्धि मिलने पर भी पहले ने आँख न उठाई उसकी ओर और दूसरे के हर्ष का पारावार न रहा । भाई की खोज कराई और यह जानकर कि नग्न बने बड़ी दरिद्रता की दशा में जीवन बिता रहें हैं वे, दयापूर्वक आधी तुम्बी स्वर्ण-रस की भेज दी उनके पास । वीतरागी को आवश्यकता ही कहाँ थी उसकी, ठोकर मार दी उसे । तुम्बी लुढ़क गई। यह समाचार सुनकर दुःख से रो उठा भाई का हृदय और चल पड़ा स्वयं शेष आधी तुम्बी लेकर । रख दी वह भी भाई के चरणों में । पुन: ठुकरा दी उसने । रो पड़ा भाई । १२ वर्ष की तपस्या यों ही बह गई। "भाई ! यह क्या किया? दरिद्रता ने तुम्हारी बुद्धि बिल्कुल ही हर ली है, यह मैं नहीं जानता था।" अब बरसने लगा अमृत शुभचन्द्र के मुख से, "भाई ! जाग, स्वर्ण चाहिए तो राज्य क्यों छोड़ा था ? शान्ति लेने निकला था कि स्वर्ण ? स्वर्ण ही चाहिए तो ले भर ले जितना चाहे", और एक चुटकी रज की अपने तलवे के नीचे से निकालकर फैंक दी पहाड़ पर । पर्वत स्वर्ण का बन गया। “ग्रहण में से शान्ति निकालना चाहता है तू ? शान्ति ग्रहण में नहीं त्याग में है। शान्ति चाहिए तो मुझ जैसा बनना होगा, जिसके पास अटूट स्वर्ण-भण्डार होते हुए भी उसका ग्रहण नहीं करता", और रच गया यह ग्रन्थ जो आपके सामने है, 'ज्ञानार्णव' । आँखे खुल गई स्वर्ण-गृद्ध भाई की। ग्रहण का अभिप्राय जाता रहा, त्याग का अभिप्राय जागृत हुआ और आज वैराग्यशतक आदि अनेकों उसकी वैराग्य-रसपूर्ण कृतियें भारत में बहुत ऊँची दृष्टि से देखी जाती हैं। २. आदर्श-त्याग-दूसरी दृष्टि से भी इस त्याग की महिमा देखिये । गुरुदेव ने कर दिया सर्वस्व त्याग इसलिए कि दूसरे इससे लाभ उठायें। उन्हें स्वयं आवश्यकता नहीं तो वे भी क्यों वञ्चित रहें इससे, जिनको कि इसकी आवश्यकता है ? अर्थात् क्र दिया सर्वस्व का दान उनको जो झोली फैलाये खड़े पुकार रहे थे उनके सामने 'हाय पैसा, हाय धन' । सेठ साहब ने सड़क पर जाते एक साधु को दया करके एक पैसा दे दिया। साधु सोचने लगा कि क्या करूँ इसका? किसी माँगने-वाले के हाथ में जाता तो कुछ काम आता उस बेचारे के, मेरे किस काम का। अच्छा देखो कोई भिखारी आयेगा तो दे दूँगा उसे । इतने में दिखाई दिया सिकन्दर का लश्कर, बड़े वेग से चला जाता था घोड़े दौड़ाये। बस फैंक दिया साधु ने.पैसा उसी ओर । सिकन्दर के मस्तक में जा लगा वह । चौंका सिकन्दर, किसने फेंका है यह तुच्छ पैसा? पकड़ लो इस साधु को । साधु आया। "क्यों जी तुमने फेंका है यह पैसा?" "हाँ" । “क्या समझकर बोला, "विचारा था कि कोई भिखारी है। बेचारा, भूखा है, अपना देश छोड़कर यहाँ आया है अपनी भूख मिटाने, चलो यह पैसा भी इसे ही दे दो काम आयेगा इसके, मुझे क्या करना है इसका?" सिकन्दर की आँखें खुल गई, पर हमारी आँखें आज तक नहीं खुलीं।। अपने को सुखी दानी मानने वाले भी चेतन ! क्या सोचा है कभी यह कि तू दानी है कि भिखारी? इतना मिलते हुए भी जिसकी भूख, जिसकी तृष्णा, जिसकी अभिलाषा शान्त नहीं हो रही है, वह क्या देगा किसी को? जिसको तू भिखारी समझता है उसका पेट तुझसे बहुत छोटा है, फिर तू दानी कैसे बना ? तू तो उससे भी बड़ा भिखारी है, और ला, और ला' की ध्वनि से मानो तेरा सर चकराया जा रहा है, घुमेर आ रही है । उल्टा दीख रहा है तुझे, भिखारी को दानी और दानी को भिखारी मानता है तू । दानी देखना है तो देख उस योगी को जिसने सर्वस्व डाल दिया है तेरी झोली में, सर्वस्व त्याग दिया है तेरे लिए। दानी बनना चाहता है तो त्याग कर ग्रहण नहीं, त्याग भी नि:स्वार्थ त्याग, अपनी शान्ति के लिए सर्व सम्पदा का त्याग या किंचित् मात्र का त्याग। ___आज एक ही ध्वनि है चारों ओर । 'जीवन स्तर को ऊँचा उठाओ, स्टैण्डर्ड आफ लिविङ्ग में वृद्धि करो।' परन्तु गुरुओं के आदर्श को भुला बैठने वाले बेचारे क्या जानें कि जीवन का स्तर किसे कहते हैं ? जिस ओर वे जा रहे हैं वह जीवन का स्तर है कि मृत्यु का, शान्ति का स्तर है कि व्याकुलता का, सन्तोष का स्तर है कि अभिलाषाओं का, निश्चिन्तता का स्तर है कि चिन्ताओं का? खेद है कि मृत्यु के स्तर को जीवन-स्तर समझ बैठने वाला आज का भारत उन्नति की बजाये अवनति की ओर जा रहा है, और मजे की बात यह कि दूसरों को उपदेश देने चला है शान्ति का। 'शान्ति' विलासिता या ग्रहण में नहीं है भाई ! त्याग में है। 'जितना ग्रहण उतनी अशान्ति और जितना त्याग उतनी शान्ति', यह है यहाँ की महान आत्माओं का उपदेश । उसे सुनो, अपनाओ और देखो कि जीवन शान्त हो जायेगा। साध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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