SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१. ध्यान २७७ ८. तत्त्व-चिन्तन १. देखो कितना महान है यह सागर, न ओर दिखता है न छोर । तूफान उठ रहा है इसमें, ज्वार उठ रहा है इसमें, नक्र-चक्र आदि ने उत्पात मचा रखा है इसमें, सब ओर उत्तंग तरंगों में भयंकर बना रखा है इसे । और वह कमल तथा उसकी पतली सी नाल ? कितने मजे में खड़ा है इस क्षुब्ध-सागर के बीचों-बीच, बिल्कुल अस्पृष्ट, निर्भय । इसकी मध्यवर्ती कर्णिका पर बैठा हूँ मैं, पद्मासन लगाये, ध्यान-मुद्रा में, जिसे न पता है सागर का और न उसके क्षोभ का। २. देखो मेरी नाभि के मध्य में यह प्रणव, यह ॐ कार, धीमा-धीमा धुआँ सा निकलता प्रतीत हो रहा है जिसके बिन्दु में-से । और लो यह धुआँ तो बन बैठा प्रचण्ड ज्वाला। किस प्रकार बढ़े जा रही है यह आकाश की ओर, किस प्रकार भस्मीभूत किये जा रही है यह सबको, मानो प्रलयाग्नि ही है ? भस्म हो गया है मेरा शरीर और यह कमल तथा उसकी नाल भी। केवल शेष रह गया मैं, चित्पिण्ड, जिस पर वश नहीं चलता इसका। अग्नि-ज्वालाओं के मध्य कुन्दनवत् शोभित हो रहा हूँ मैं, या है यह कुछ थोड़ी सी भस्म, मेरे शरीर की तथा उस कमल की। ३. देखो कितना बड़ा तूफान उठा पश्चिम की ओर से, वेगवन्त वायु, अत्यन्त विकराल । उड़ गई सकल भस्म उसमें । फिर भी कुछ मात्र दिखाई दे रही है मुझे, मेरे इस चित्पिण्ड पर लिपटी हुई सी। ४. यह भी धुली जा रही है अब, तूफान के काले-काले विशाल मेघों से गिरने वाली अटूट जल-धाराओं के द्वारा । और अब ? केवल मैं, अत्यन्त निर्मल तथा उज्जवल शुद्ध चैतन्य, और यह सागर, क्षोभ शान्त हो चुका है जिसका । दिशाओं विदिशाओं में फैला जा रहा है मेरा प्रकाश, असीम प्रकाश। (५) अब लीजिये कुछ अन्य चिन्तवन भी । “मैं हूँ यह चेतन तत्त्व” निर्मल ज्योति मात्र । भूलकर इसे आज तक शरीर को ही मानता रहा 'मैं', ज्वाला के गर्भ में समा जाने वाले इस शरीर को। इसी का आश्रय लेकर करता रहा सदा नवीन-नवीन विकल्पों की सष्टि, संस्कारों का निर्माण तथा पोषण करता रहा सदा उनका, बेसध। यह भी न जान सका कि किस प्रकार लूटे जा रहे हैं मेरी सम्पत्ति ये, मेरे घर के चोर, और इसलिए सदा बना रहा व्याकुल । आज बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुई है, गुरुदेव की देशना; कर्त्तव्य-अकर्तव्य जाना, हित-अहित पहचाना, देवपूजा, गुरु-उपासना आदि के द्वारा संवरण किया उन संस्कारों को तथा विविध प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तपों द्वारा शोषण किया उनकी शक्ति का । मिली एक अपूर्व शान्ति, जिसे पाकर कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ, प्रभु बना जा रहा हूँ मैं । यह सब गुरु-शरण का ही तो प्रताप है, और क्या ? (६) हे चेतन महा प्रभु ! क्यों भूले जा रहा है अपनी महत्ता, क्यों रुले जा रहा है जगत के इस असत्य विलास में, जिसकी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं (देखो ९.२)? क्यों देख रहा है ललचाई-ललचाई दृष्टि से इनको, किन्हीं सत्ताभूत मौलिक पदार्थों की पर्यायों को, उनकी क्षणध्वंसी अवस्थाओं को? क्या भूल गया कि तूने ही सृजन किया था अपनी कामना तथा वासना-शक्ति के द्वारा अन्तरंग के वैकल्पिक जगत का और तत्फलस्वरूप अनेकविध-शरीरों के संघातरूप इस बाह्य-जगत अथवा नोकर्म-जगत का (देखो ८.१)? तू ही स्वयं लीन कर लेने वाला है अपने इस अखिल बाह्याभ्यन्तर विस्तार को अपने भीतर । और इस प्रकार त्रिमूर्ति तू ही है, उत्पाद व्यय ध्रौव्य । ( ) सृजन रते-करते बहत काल बीत चका है तझे देख तेरा दिन अस्ताचल की ओर चला जा रहा है और रात्रि आकाश पर छाई जा रही है ताकि इस उधेड़बुन से विश्रान्त होकर आनन्द की नीन्द सो सके तू, अपने इस अखिल विस्तार को अपने में लय करके स्वयं अपने में खो सके तू ।। (७) हे भगवन् ! तू भूल गया कि तू ही है सृष्टा इस अखिल विस्तार का? इन सकल सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों का । कुछ सृष्टि तूने की है आज और कुछ की कल और किये जा रहा है बराबर बच्चों की भाँति । कभी एक घरोंदा बनाता है और कभी दूसरा, कभी एक खिलौने से खेलता है और कभी दूसरे से । नवीनता जो भाती है तुझे? पहले घरोंदे को तोड़कर दूसरा नया घरोंदा बना लिया, पहले खिलौने को तोड़कर या छोड़कर दूसरा नया खिलौना ले लिया। तेरी लीला या विलास के अतिरिक्त और क्या कहूँ इसे ? अपनी ही लीला को क्यों इतने विस्मय से देख रहा है तू ? भले ही किसी दूसरे के लिए कुछ आश्चर्य की वस्तु हो यह, परन्तु तेरे लिए तो कुछ भी नया नहीं है यहाँ । अनेकों बार बना-बना कर तोड़े हैं तूने और तोड़-तोड़कर बनाये हैं तूने ये नाम तथा रूप। अब समेट अपनी इस बाह्य-दृष्टि को, इस अपनी लीला को और डुबकी लगा स्वयं अपने अन्दर । देख सब कुछ पड़ा है वहाँ, युगपत् । (देखो २६.१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy