________________
४१. ध्यान
२७६
८. तत्त्व-चिन्तन
८. तत्त्व-चिन्तन-धर्मध्यान का चौथा रूप है तत्त्व चिन्तवन । अनेक प्रकार का चिन्तवन किया जा सकता है इसके अन्तर्गत, जिनमें से कुछ मात्र का उल्लेख तो आगम में उपलब्ध है और कुछ का अपनी बुद्धि से निकालकर किया जाना सम्भव है । इसके अतिरिक्त भी अनेक चित्रण खेंचे जा सकते हैं अपने मन से, स्वयं अपनी-अपनी बुद्धि तथा श्रद्धा के अनुसार । आगम में चार चिन्तवन प्रसिद्ध हैं- आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय और संस्थान-विचय । लीजिए पहले क्रम से इन चारों का ही उल्लेख करता हूँ, तत्पश्चात् यथासम्भव अन्य भाव भी चित्रित करने का प्रयत्न करूँगा ।
(१) पहला चिन्तवन है 'आज्ञाविचय' । आज्ञा अर्थात् गुरु आज्ञा, गुरुदेशना । अपार है गुरुदेव की कृपा, कैसे गाऊँ उनकी महिमा और कैसे करूँ उनकी स्तुति, शब्द ही नहीं मेरे पास । जीव आदि तत्त्वों के सम्बन्ध में देशना देकर उन्होंने मुझ अन्धे को आँखें प्रदान की, अन्यथा कैसे जान सकता मैं अन्तरङ्ग जगत के ये रहस्य जहाँ तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं । किस प्रकार प्यार से पुचकार - पुचकार कर तथा प्रेरणा दे-देकर उन्होंने मुझे इस अथाह सागर से ऊपर उभारा, शान्ति का मार्ग दर्शाया, जिस पर अपनी शक्ति अनुसार बराबर आगे-आगे बढ़ता हुआ आज मैं संन्यासी के इस उन्नत सोपान पर पग रखने योग्य हुआ, जिसे पाकर कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ मैं। यह सब गुरुदेव की देशना ही तो प्रताप है, और क्या ? इस प्रकार हस्तावलम्बन देकर मुझे ऊपर न उबारते वे तो पड़ा-सड़ा करता वहीं, जगत के इस अन्ध-कूप में । धन्य हैं गुरुदेव और धन्य है उनकी देशना । भव-भव में प्राप्त होती रहे मुझे यह, जब तक पूर्ण न हो जाऊँ मैं ।
(२) दूसरा चिन्तवन है 'अपाय -विचय' । अपाय अर्थात् प्राप्ति का अभाव। इस देशना की प्राप्ति न होने के कारण ही आज तक इस विकट-वन में भटकता रहा, क्षणभर को भी अन्तर्शान्ति का परिचय प्राप्त न हुआ । मेरा अभाव तो कभी हुआ नहीं था, क्ला तो अनादि काल से ही आ रहा हूँ, परन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि आज तक इसके प्रति जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं हुई मेरे हृदय में। और इसी प्रकार कितने दुःखी हैं जगत के ये सर्व प्राणी भी, बेचारों को ये भी पता नहीं कि दुखी हैं या सुखी, शान्ति की प्राप्ति हो तो कैसे हो ? हे गुरुवर ! कृपा करो इन पर भी मेरी ही भाँति, देशना देकर उबार लो इनको भी मेरी ही भाँति । मेरे भाई बन्धु ही तो हैं सब, एक चेतन-तत्त्व की सन्तान ।
(३) तीसरा चिन्तवन है 'विपाक विचय' । विपाक अर्थात् कर्म विपाक, संस्कारों की जागृति । कितने दुष्ट हैं ये प्रबल संस्कार ? सदा इनके पाले पड़ा रहा। क्षण भर को भी हित बुद्धि नहीं उपजी । उपजती भी कैसे ? पहरे पर जो बैठे थे ये दुष्ट, सावधान कि कहीं गुरुवाणी प्रवेश न कर जाए हृदय में। और ये जगत के सर्व प्राणी भी नाच रहे हैं, मेरी ही भाँति उनके आधीन हुए। बड़ी सावधानी की आवश्यकता है इनसे युद्ध ठानने के लिए, इनके प्रहार से बचने के लिए । गुरुचरण ही एक मात्र शरण है यहाँ । उन्होंने ही मेरी रक्षा की है इनसे और वही करेंगे इस अखिल जगत की रक्षा । मुझे प्रकाश मिला है उनसे, मुझे बल मिला है उनसे। इन्हें अब जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देना ही सर्व प्रथम तथा सर्व-प्रधान कर्त्तव्य है मेरा । अब इन्हें मेरा देश छोड़ना ही पड़ेगा, इनके एक बच्चे को भी आज्ञा नहीं मिलेगी अब यहाँ रहने की । आज तक इनके आधीन रहा, पर अब नहीं रहूँगा। गुरु-शरण जो प्राप्त हो गई है मुझे ।
(४) चौथा चिन्तवन है 'संस्थान- विचय' । संस्थान अर्थात् देहाकृति । कितना सुन्दर लगता है अर्हन्त-प्रभु का शरीर, शान्ति में नित्य स्नान किए जा रहा है मानो, अनेकों बाह्य अतिशयों से युक्त अन्तरङ्ग के अनन्त वैभव का परिचय दे रहा है मानो । और यह गुरुदेव की वीतराग आकृति, कितनी शान्त तथा सौम्य है यह ? अथवा सिद्ध प्रभु का निराकार आकार, संस्थानहीन संस्थान मूर्तिहीन मूर्ति ? ज्ञान ही है आज उनका शरीर, लोकालोक व्यापी ज्ञान, और इसलिए सर्वगत है वह, सर्व व्यापक है वह, चिज्ज्योति मात्र । अथवा स्वयं मेरे भीतर हृदयगुहा में विराजमान वह परम देव, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमेश्वर, परमतत्त्व, क्या कहूँ इसे, कैसा संस्थान बताऊँ इसका ? ज्योति तथा तेज के अतिरिक्त कुछ दीखता ही नहीं मुझे ।
और इस प्रकार अनेकों संस्थानों का चिन्तवन किया जा सकता है इसके अन्तर्गत, अनेकविध धारणायें की जा सकती हैं इसके अन्तर्गत, कल्पनागत धारणायें, परन्तु तत्त्वोन्मुखी । यथा : -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org