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४१. ध्यान
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इसमें, कौन आकर्षण है इसमें, तेरे अपने शरीर में और इस स्त्री के शरीर में जिस पर लुभाया जा रहा है तू ? पवित्र वस्तुओं को भी अपवित्र कर देने वाला इससे अधिक अपवित्र क्या है इस जगत में, घिनावना क्या है इस जगत में ? भगवान ने तो तेरा सेवक बनाकर भेजा था इसे, परन्तु तू स्वयं बन बैठा इसका सेवक । मूर्च्छा, महान मूर्च्छा । हट इधर और अपने भीतर, देख अपना सुन्दर शरीर, ज्ञान शरीर, अनन्त ज्योति पुञ्ज, चित्पिण्ड ।
७. बस हो अब नित्यनूतन अपराधों से, इस पुण्य-पाप रूप आस्रव से, जिसने खो दिया है तुझे घर -घाट से । रक्षा कर अपनी इस सर्वभक्षी दुष्ट राक्षस से । आ इधर, स्वयं अपने भीतर, देख अपना सौम्य तथा साम्य स्वरूप, इस ज्ञान दर्पण में, जहाँ न है मैं न तू, न मित्र न शत्रु, न सज्जन न दुर्जन, न ऊँच न नीच, न इष्ट न अनिष्ट, न जन्म न मरण, न हानि न लाभ, न ग्राह्य न त्याज्य । है केवल चिज्जयोति, अखण्ड व अगम्य ।
७. भावना - भावन
८. दबा ले प्रभु ! दबा ले, इन सर्व बाह्याश्रित द्वन्द्वों को। संवरण कर दे इनका, उनका जिन्होंने कि नष्ट कर दिया है तुझे रुला रखा है तुझे । चञ्चल जगत की ओर देखने से ही भटक रहा है तू इन स्व-रचित द्वन्द्वों में, विविध विकल्पों में । यदि कदाचित देखले एक बार, केवल एक बार, स्वयं अपनी ओर, अपने भीतर विराजमान महाप्रभु की ओर, तो कृतकृत्य हो जाए तू, इस द्वन्द्व-सागर से पार हो जाए तू ।
९. और फिर यह दुष्ट संस्कार - राशि भी, जिसे पुष्ट किए जा रहा है तू, नित्य नूतन अपराध कर-करके, भूखे मरते छोड़ जाएं तेरा घर, क्षीण होकर झड़ जाए सब, पतझड़ की भाँति । निर्जरा हो जाए इनकी, तू हो जाए निश्चिन्त व अभय, इनसे तथा इनके आतंक से । जब इनकी कुछ बात ही नहीं पूछेगा तू, तो क्या बिगाड़ सकेंगे ये तेरा ? और वास्तव में ये हैं भी तो नहीं, तेरी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ।
१०. देख चेतन ! देख, अपनी महिमा । तीन लोक का अधिपति है तू, इसका ईश्वर तथा परमेश्वर है तू । तुझमें से ही निकला आ रहा है सब कुछ और तुझमें ही लीन हुआ जा रहा है सब कुछ, सागर की तरंगों वत्, अन्तरंग का यह वैकल्पिक लोक, जिसका न ओर है न छोर । यह व्यवहारिक जगत है केवल इसका प्रतिभास, अभूतार्थ व असत्यार्थ, सम्भवत: इसलिये कि कदाचित् तृप्त हो सके तू इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष करके अपनी इस महान कला का ? परन्तु तू तो समझ बैठा है इसको ही सब कुछ और भूल गया अपनी कला को । कदाचित् समझ पाता तू अपने इस कौशल को, अपने इस परिपूर्ण विज्ञान को विकल्प करना, और अगले ही क्षण साकार कर देना उसे एक शरीर का आविष्कार करके। बता तो सही कि इसके अतिरिक्त और क्या है यह जिसे कि तू कहता है लोक ? तेरे विविध शरीरों का संघात ही तो है, कुछ जीवित शरीरों का और कुछ मृत शरीरों का अथवा उनके नाम-रूपों का इसके अतिरिक्त और क्या ?
११. हे त्रिलोकाधीश ! क्यों लुभाता है इसमें, क्यों लालसा करता है इसकी ? सभी कुछ तो सुलभ है, इससे अधिक सुलभता क्या ? कल्पना की और तुरन्त हो गई वह साकार । पद-पद पर बिखरे पड़े हैं, यों ही बेकार से, तेरी कल्पनाओं के ये साकार रूप । अनेकों बार ग्रहण कर-करके छोड़ चुका है, बना-बनाकर तोड़ चुका है । त्यक्त को पुनः पुनः उठाते, वमन को पुन: पुन: चाटते, क्या ग्लानि नहीं आती तुझे ? कदाचित् जान पाता तू इस जगत की दुर्लभतम वस्तु को तो कृतकृत्य हो जाता तू सदा के लिये, सो जाता विश्राम से सदा के लिये । तेरी अपनी निधि, 'बोधि', ज्ञान । लौकिक विषय-ज्ञान नहीं और न ही शाब्दिक शास्त्र - ज्ञान, प्रत्युत तात्त्विक आत्म-विज्ञान, भीतरी जगत को प्रत्यक्ष कराने वाला रहस्य-ज्ञान, गुरु कृपा के बिना सम्भव नहीं है जो । तज इस लोक की शरण और पकड़ उनकी शरण, उनके द्वारा प्रदत्त आलोक की शरण ।
१२. और इसी से जान पायेगा तू अपना स्वभाव, अपना धर्म, चिदानन्द का मर्म, समता- रस, शान्ति-सुधा, मुक्ति, निर्वाण और खो जाएगा तू, लीन हो जाएगा तू उसमें सदा के लिये । न रहेगा तेरा यह मन और न रहेंगे उसके द्वन्द्व ।
इसी प्रकार अन्यान्य भी अनेकों भावनाओं का हृदय में उद्भावन करके देख तू स्वयं, कि किस प्रकार तेरा चित्त, तजकर अपना चञ्चल वृत्त, हुआ जा रहा है लीन, हृदय- सागर की अथाह गहराई में, जहाँ न है बाह्य जगत को स्थान और न अन्तरंग जगत की सत्ता । है केवल एक शान्त- रस, द्वन्द्वातीत समता, और इसलिए भावनाओं के विकल्परूप होता हुआ ' भी यह कहा जाता है ध्यान, धर्मध्यान का तृतीय रूप, मन्त्रजाप्य तथा स्तोत्र पाठ वाले प्रथम दो रूपों से कुछ ऊँचा ।
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