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________________ ५. शान्ति मार्ग ३. श्रद्धा का जगत् धर्म की जिज्ञासा ही छोड़ बैठा है और भोग विलास के तीव्र वेग में बहा चला जा रहा है, बेसुध । अत: श्रद्धा की सत्यार्थता व सुन्दरता बता देना आवश्यक है, जिससे कि भ्रमात्मक उस झूठे सन्तोष से पग-पग पर सावधान रहा जा सके; उस अभिप्राय के अनुकूल श्रद्धा की, जिस अभिप्राय को रखकर कि उसका स्वरूप दिखाया जा रहा है। जैसा कि आगे के प्रकरणों में दिखलाने में आयेगा। अभिप्राय या श्रद्धा पर ही किसी क्रिया विशेष की सत्यार्थता व असत्यार्थता निर्भर है। श्रद्धा के सम्बन्ध में कछ ऐसी धारणा बन रही है, कि मैं तो ठीक ही स्वीकार करता हूँ। अमक ही प्रकार के देव, गुरु व धर्मादि को स्वीकार करता हूँ, अन्य प्रकार वाले को नहीं और यही गुरुदेव की आज्ञा है । गुरु-वचनों में कभी संशय नहीं करता, भले वे समझ में आवें या न आवें, हृदय उसे स्वीकार करे या न करे, क्योंकि भय है इस बात का कि कहीं मेरी श्रद्धा झूठी न पड़ जाय, संशय उत्पन्न करने से । परन्तु भाई ! कभी विचारा है यह कि वह श्रद्धा सच्ची है ही कब, जो झूठी पड़ जायेगी? पहले ही से जो झूठी है उसका क्या झूठा पड़ना? भले बाहर से शब्दों में शंका न कर, पर अन्तरंग की शंका को कैसे दबायेगा? और यदि अन्तरंग में शंका नहीं है तो तत्त्व समझते समय 'यह तो बिल्कुल ठीक है परन्तु .............?' यह ‘परन्तु' कहाँ से आ रही है ? इसके अतिरिक्त शास्त्र के आधार पर तत्त्वों सम्बन्धी कुछ जानकारी सी करके “यह बिल्कुल ठीक है, ऐसा ही है, अन्य मतों के द्वारा प्ररूपित तत्त्व ठीक नहीं हैं", इस प्रकार के साम्प्रदायिक अन्ध-श्रद्धान को श्रद्धा की सच्ची कोटि में गिना जाता है परन्तु यदि ऐसा ही होता तो ऐसी श्रद्धा तो सब को ही है । मुसलमानों द्वारा प्ररूपित तत्त्व को माने सो मोमिन और न माने तो काफिर । वेद को माने तो आस्तिक और न माने तो नास्तिक । उनके इस कथन में तथा तेरे उपरोक्त कथन में अन्तर ही क्या रहा? यदि अपनी-अपनी दही को मीठा बताने का नाम ही सच्ची श्रद्धा है तो लोक में कोई भी झूठी श्रद्धा नहीं रहेगी, सब शान्ति-पथ गामी होंगे। अत: साम्प्रदायिक श्रद्धा का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है यह साम्प्रदायिक नहीं वैज्ञानिक मार्ग है। अन्ध-श्रद्धा को यहाँ अवकाश नहीं। बिना 'क्या' और 'क्यों' किये स्वीकार की गई बात स्वीकृत नहीं कही जा सकती, क्योंकि ऐसा ही है' इस श्रद्धा का विषय, केवल उस तत्त्व सम्बन्धी शब्द हैं, उस तत्त्व का रहस्यार्थ नहीं । अर्थात् ऐसी श्रद्धा केवल शाब्दिक है तात्त्विक नहीं। जीव, अजीव आदि के भेद-प्रभेदों को शब्दों में जानते हुये भी वास्तव में वह नहीं जानता कि जीव किस चिड़िया का नाम है और अजीव आदि के साथ इसका क्या सम्बन्ध है। इस प्रकार के शाब्दिक ज्ञान से विद्वान बन सकता है, तार्किक बन सकता है, वक्ता बन सकता है, पर श्रद्धालु नहीं। कुल परम्परा के आधार पर अन्धविश्वास करने वाले की तो बात नहीं, वह तो है ही कोरा अन्धश्रद्धालु, परन्तु 'तत्वों आदि को जानने वाला भी सच्चा श्रद्वालु नहीं', यहाँ तो यह बताया जा रहा है। किसी भी विषय सम्बन्धी सच्ची श्रद्धा तो वास्तव में उस समय तक सम्भव नहीं जब तक कि उस विषय का अनुभव न हो जाय। अनुभव से पहले की जाने वाली श्रद्धा की पोचता की परीक्षा भी की जा सकती है। दृष्टान्त सुनिये- कल्पना करो किसी ऐसी परिस्थिति की, जिसमें कि आप स्वयं घिर गये हैं। किसी गाँव को लक्ष्य में रखकर चलते-चलते पहुँच गये किसी भयानक वन में, जहाँ से बहुत सी पगडण्डियाँ फूट जाती हैं। असमंजस में पड़े विचारने लगे कि कौन सी पगडण्डी पर चलूँ? किसी राहगीर की प्रतीक्षा करते हो । सौभाग्य से एक व्यक्ति दिखाई दिया जिसका शरीर नंगा, केवल घुटनों से ऊँची मैली कुचैली एक धोती थी उसकी टाँगों में कुछ अस्त-व्यस्त सी उलझी हई, कन्धे पर एक लट्ठ, हट्टा कट्टा काला कलूटा सा एक मानव, जिसे रात को देखें तो भय के मारे सम्भवत: प्राण ही निकल जायें। खैर, साहस करके पूछा भी तो उत्तर मिला इतना कर्कश कि मानो खाने को ही दौड़ता है। “चला जा अपनी दाईं ओर । मार्ग जानता नहीं, आ गया पथिक बनकर।" आप ही बताइये कि क्या उसके द्वारा बताई गई दिशा में आप एक भी पग रखने को समर्थ हो सकोगे? भले ही रात वन में बितानी पड़े, पर उसके कहे पर आपको कदापि विश्वास नहीं आयेगा। परन्तु कुछ ही देर पश्चात् दिखाई दिया एक और भला परन्तु अपरिचित कोई अन्य व्यक्ति सफेद सादे वस्त्र पहने, मस्तक पर तिलक लगाये, और हाथ में डोरी लोटा लिये। उससे भी पूछा अपना इष्ट मार्ग । बड़े मधुर व सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में उत्तर मिला । करुणा ही टपक रही थी उन शब्दों से । “ठीक मार्ग पर नहीं आये हो पथिक, वन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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