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३. श्रद्धा
वाली 'और चाहिये' की ध्वनि बदल जायेगी 'बस यही चाहिये, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। तीन लोक की सम्पत्ति, हीरे मोती आदि सब धूल-समान हैं, ठुकरा दिये जाने योग्य हैं इसके सामने, इस रूप में। यह लक्ष्यबिन्दु दृढ़ता से हृदयंगम कर लेना योग्य है । यह तुझे शक्ति प्रदान करेगा, उस विस्तृत कथन को समझने की तथा उससे कुछ हित उत्पन्न करने की। इस लक्ष्यबिन्दु का बड़ा महत्त्व है प्रत्येक कार्य में। क्योंकि किसी भी दिशा में जाने की, या कोई भी कार्य करने की, उस कार्य में सफलता व असफलता का निर्णय करने की, कार्यक्रम की सत्यार्थता व असत्यार्थता बताने की शक्ति इसी से मिला करती है । उत्तर दिशा में चलता चलता दूर निकल जाने वाला कोई व्यक्ति, यदि उस दिशा में चलना बन्द करके, दक्षिण की ओर मुख करके खड़ा हो जाय, उस ओर चलने का लक्ष्य रखकर, तो क्या उसे दक्षिण देश के निकट हुआ न कहेंगे? भले अभी वहीं खड़ा हो, पग भी आगे रखे बिना। इसी प्रकार शान्ति के उपाय को जीवन में घटित किये बिना भी, अशान्ति की ओर जाने वाले भो चेतन ! यदि केवल अशान्ति के अभिप्राय के कार्यों को छोड़कर, शान्ति
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शान्ति मार्ग
अभिप्राय मात्र को धारण करके, तू शान्ति का लक्ष्यबिन्दु बनाले तो अपने को शान्ति के निकट ही समझ । परन्तु सच्चा लक्ष्यबिन्दु उसे कहते हैं जो अन्तरंग से रुचिपूर्वक उस दिशा में ही चलने के लिये व्यक्ति को उकसाये और अन्य दिशा में चलने से रोके । अतः यहाँ लक्ष्यबिन्दु का तात्पर्य केवल शाब्दिक शान्ति या मोक्ष की अभिलाषा से नहीं है ।
ऐसी अभिलाषा या मोक्ष के प्रति का झूठा लक्ष्यबिन्दु तो आज भी बना हुआ है, सबको। सब ही तो कहते हैं कि प्रभु ! किसी प्रकार मुझे शान्ति प्रदान करें। आज के इस लक्ष्य-बिन्दु की असत्यार्थता का पता चलता है इस दृष्टान्त से :
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एक सेठ जी थे । भगवान के बड़े भक्त थे, प्रभु के सामने अपने उद्गार प्रकट करते, स्तुति करते तथा अपने दोषों के लिये रोते हुये कई-कई घण्टे मन्दिर में व्यतीत करते । यही थी उनकी एक पुकार, कि भगवन् ! किसी प्रकार मोक्ष प्रदान कीजिये । उनकी भक्ति की परीक्षा का अवसर आया। एक देव आकर कहने लगा, “सेठ जी ! आपकी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुये हैं भगवान, मुझे भेजा है आपकी इच्छा पूर्ति के लिये ।" सेठ जी की बाँछे खिल गई । आज उन्हें मोक्ष मिलने वाली थी । पर वे स्वयं नहीं जानते थे कि मोक्ष किसे कहते हैं ? देव बोला “ सेठजी ! आपके दस पुत्र हैं तथा दस कारखाने । एक पुत्र प्रति दिन मरेगा और एक कारखाना रोज फेल होगा। दस दिन पीछे तुम पुत्र हीन हो जाओगे और कंगाल भी । बस ग्यारहवें दिन मैं ले जाऊँगा तुम्हें आकर ।" परन्तु सेठ जी सहम गये, यह बात सुनकर। पुत्रों की मृत्यु भी सम्भवतः ली पड़ती, पर कंगाल होना ? नहीं-नहीं, यह तो बड़ी टेढ़ी खीर है, गले से नीचे न उतर सकेगी। देव से बोले “ भाई; बड़ा कष्ट किया है तुमने मेरे लिये, एक कष्ट और देता हूँ, क्षमा करना । प्रभु से यह प्रार्थना करना कि यदि किसी और क्वालिटी की, किसी और प्रकार की मोक्ष हो तो प्रदान करने की कृपा करें, परन्तु इस क्वालिटी की मोक्ष तो सम्भवत: मुझे पच न सकेगी।"
बस ऐसा ही है हमारा भी लक्ष्यबिन्दु । धन न छूटे, कुटुम्ब न छूटे, खूब भोग भोगता रहूँ, और शान्ति भी चखता रहूँ । अर्थात् विष भी पीता रहूँ और अमृत का स्वाद भी लेता रहूँ। ऐसा लक्ष्य वास्तव में लक्ष्यबिन्दु कहलाता ही नहीं, सुनी-सुनाई सी कोई बात है जो रट सी गई है। चौथी जाति की सच्ची शान्ति के प्रति सच्चा लक्ष्यबिन्दु बनाने के लिये कहा जा रहा है; वह लक्ष्यबिन्दु जिसके कारण लौकिक सर्व बाधायें आ पड़ने पर भी उसके मार्ग पर से तेरी प्रगति मन्द न पड़ने पावे ।
३. श्रद्धा — मार्ग की त्रयात्मकता कल बताई गई उसमें से पहला अंग है श्रद्धा, उसकी बात चलेगी। श्रद्धा का अर्थ है लक्ष्यबिन्दु, रुचि, प्रतीति व अभिप्राय । किसी बात को बिना परीक्षा किये मुझे स्वीकार नहीं करना है | मैं वैज्ञानिक बनकर चला हूँ साम्प्रदायिक नहीं। 'श्रद्धा' इस मार्ग का सर्वप्रथम व सर्वप्रमुख अंग है, क्योंकि बिना ठीक-ठीक लक्ष्यबिन्दु व रुचि के उसका तत्सम्बन्धी ज्ञान व चारित्र अकार्यकारी है। इन अगले दो अंशों की सत्यार्थता का आधार यह श्रद्धा ही है । यद्यपि श्रद्धा व लक्ष्यबिन्दु दोनों एक ही बात हैं, परन्तु फिर भी श्रद्धा के सम्बन्ध में साधारणतः बहुत भ्रम चलता है । लक्ष्यबिन्दु रहित केवल साम्प्रदायिक श्रद्धा को सच्ची माना जा रहा है और उसी पर सन्तोष धरकर कुछ क्रियायें केवल अन्धविश्वास के आधार पर की जा रही हैं, जिनका कोई फल नहीं । निष्फल उस पुरुषार्थ से ऊबकर आज
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