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५. शान्ति मार्ग
३. श्रद्धा
बड़ा भयानक है, भयानक जन्तुओं का वास; है यहाँ, यदि रात्रि पड़ गई तो जीवित न बचोगे । खैर अब भी समय है, इस दाहिनी ओर वाली पगडण्डी पर चलो। लगभग डेढ़ मील जाने पर एक नाला मिलेगा, जिस पर पड़ा होगा खजूर का एक तना, पुल के रूप में । नाले को पार कर जाओ, एक मील और आगे दिखाई देगा वृक्षों का एक बहुत बड़ा झुण्ड । बड़ा साया रहता है वहाँ । वहाँ पहुँचकर बाईं ओर मुड़ जाना, आधा मील ही रह जायेगा वहाँ से आपका स्थान ।" विचारिये, क्या अब भी उस दिशा में आपका पग न उठेगा? आपको अवश्य उसके कहने पर विश्वास आ जायेगा और आप प्रसन्न-चित्त चल पड़ोगे उस दिशा में।
भला क्या अन्तर था पहिले तथा इस व्यक्ति के संकेत में? मार्ग तो उसने भी वही बताया था जो कि इसने । परन्तु पहले मैं अविश्वास और अब विश्वास? क्या कारण है ? कारण है वक्ता की प्रामाणिकता। इसी प्रकार यहाँ धर्म के सम्बन्ध में वीतरागी गुरुओं ही की बात आपको स्वीकार है, रागीजनों की नहीं । कारण कि आपको दिखती है वहाँ नि:स्वार्थता व करुणा । जो बात वे मुख से कहते हैं उसकी झांकी उनके जीवन में स्पष्ट दिखाई देती है । और इन्हीं गुणों के कारण वे आपकी दृष्टि में प्रामाणिक हैं। श्रद्धा के पथ पर आपका यह पहला पग है, जिसमें क्या कमी है सो आगे दर्शाता हूँ।
चले अवश्य जा रहे हो उसी मार्ग पर परन्तु हृदय में है कुछ कम्पन सा-“यदि यह भी मार्ग ठीक न निकला तो? या आगे जाकर फिर भटक गया तो? बीहड़ वन है कौन जाने पहुँच भी पाऊँगा या नहीं? खैर चलो भगवान सहायी हैं, और इस प्रकार के अनेकों विकल्प । तनिक विचारो, पक्ष को छोड़कर, क्या यही अवस्था न होगी आपके हृदय की इस श्रद्धा की प्रथम श्रेणी में ? बस स्पष्ट हो गया इस श्रद्धा का झूठापना या अन्धविश्वासपना । अन्तर्ध्वनि से आने वाली यह 'तो' इस बात की साक्षी है कि स्वीकार करते हुये भी आपका संशय दूर नहीं हुआ है अभी । इसी प्रकार यहां धर्म-मार्ग में भी, यद्यपि स्वीकार हैं गुरुओं की बातें परन्तु “निश्चय से न सही, व्यवहार से तो ठीक है न यह हमारी पहले की धारणा?" इस प्रकार जो पोषण करने का प्रयत्न किया जा रहा है, अपने ही अभिप्राय का, यह कहाँ से निकल रहा है ? बस यही है
बात की कि वास्तविक तत्त्व आपको स्वीकार ही नहीं है, अन्यथा आपकी धारणा बदल जानी चाहिये थी।
आगे चलिये, नाला दिखाई दिया और साथ में वह खजूर का पुल भी। विचारिये तो कि कुछ कमी पड़ेगी उस कम्पन में या नहीं? अवश्य पड़ेगी। “नहीं नहीं, यह मार्ग ठीक ही होगा, वही पहिला चिह्न जैसे बताया था आ गया, अब कुछ संशय नहीं रहा इसमें, अब तो आ ही जायेगा गांव ।" कुछ ऐसी सी बात प्रकट हो जायेगी। यद्यपि संशय बहत मन्द पड़ चुका है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उसका सर्वथा अभाव हो गया है, जिसकी 'ठीक ही होगा,' 'आ ही जायेगा' ये कुछ शब्द दे रहे हैं। दृढ़ श्रद्धान में सन्देह-सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ करता। और इसी प्रकार इस धर्म-क्षेत्र में भी गुरुवाणी से तत्त्वों को सीखकर यद्यपि कुछ व्रतादि धारण कर लिये हैं, परन्तु फिर भी उन तत्त्वों की श्रद्धा में सन्देह पड़ा हुआ है। जिसकी साक्षी इस अभिप्राय से मिलती है कि भले आज न सही पर व्रतादि करते-करते आगे कभी तो 'होगी ही' मोक्ष । यह श्रद्धा की दूसरी कोटि है, यद्यपि पहले से कुछ दृढ़, पर सच्ची नहीं।
आगे चलिये, वृक्षों का झुण्ड आया, हृदय में एक आह्लाद उत्पन्न हुआ, मानो टांगों में शक्ति आ गई हो, और तेजी से कदम उठने लगे। “बस अब गांव आ ही गया समझो, बस इस मार्ग में किंचित भी संशय नहीं, यह ठीक ही है ।" इस प्रकार की दृढ़ता, यद्यपि इस श्रद्धा की दृढ़ता को सूचित कर रही है, तदपि श्रद्धा अब भी दृढ़ नहीं है । यह बात गले उतरनी कुछ कठिन पड़ती है, परन्तु विचार करने से अवश्य इसकी सत्यता ध्यान में आ जायेगी । कल्पना कीजिये कि कुछ ही दूर झुण्ड से आगे निकल जाने पर, आपका कोई चिरपरिचित मित्र मिल जाता है, और कुछ आश्चर्य में पड़कर आपसे पूछ बैठता है, “कहां जा रहे हो मित्र इस मार्ग से? बाल बच्चों का प्रबन्ध कर आये हो या नहीं?" स्वभावत: हा जायेंगे उसकी इस बात पर कि क्या कारण है उसके इस आश्चर्य का? और यदि वह बताये कि तम्हें गलत मार्ग पर डाला गया है, आगे उसी ठग का गाँव पड़ेगा जिसने कि तुम्हें मार्ग बताया है, तो क्या आप कांप न उठोगे? बताइये कहाँ चली जायेगी आपकी इस समय तक की दृढ़ श्रद्धा? बस यही बात साक्षी है कि यह तीसरी कोटि की अत्यन्त दृढ़ दीखने वाली
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