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________________ ५. शान्ति मार्ग ३१ ३. श्रद्धा श्रद्धा भी वास्तव में सच्ची नहीं है। इसी प्रकार धर्म-क्षेत्र में भी व्रतों आदि या विद्वत्ता आदि के कारण, सम्मान से मिली प्रतिष्ठा से भ्रमित होकर, भले आप यह मान बैठें कि मेरी श्रद्धा बिल्कुल सच्ची है, यही गुरुओं के द्वारा प्रतिपादित मार्ग है, इतने बड़े-बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति तथा विद्वान इस मेरी श्रद्धा का समर्थन कर रहे हैं; परन्तु वास्तव में यह श्रद्धा भी सच्ची नहीं है । क्योंकि भले बाहर में आपके मुख से कोई शब्द ऐसा न निकले जिस पर से तार्किक आपके अभिप्राय में भूल निकाल सकें, भले ही बाहर में यह कहते सुने जायें कि मुझको बड़ा आनन्द आ रहा है इस जीवन में, परन्तु आप स्वयं यह जान नहीं पाते कि यह आनन्द जीवन में से आ रहा है कि प्रतिष्ठा के कारण लोकैषणा में से ? आपके अन्तरंग में तो यह मार्ग कुछ कठिन सा भास रहा है, असिधारा के समान । बस जीवन में इस कठिनाई का वेदन ही इस बात का साक्षी है कि आपकी यह तीसरी कोटि की श्रद्धा भी सच्ची नहीं है, भले दूसरों की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो यह । और आगे चलिये, वह देखो कलशे सर पर रखे गांव की स्त्रियाँ कुएँ पर से पानी लाती दिखाई दे रही हैं । सामने मन्दिर के शिखर पर लहराती ध्वजा मानो हाथ की झोली दे-देकर आपको बुला रही है, और कह रही है कि चले आइये, यही है वह गांव जहाँ आप जाना चाहते थे । अब विचारिये कि स्वयं वीर प्रभु भी आकर यह कहने लगें कि “किधर जाते हो ? यह मार्ग ठीक नहीं है।" तो क्या उनकी बात स्वीकार करेंगे आप ? कदापि नहीं । आपकी आंखों के सामने गांव है। इस चाक्षुष प्रत्यक्ष के सामने आप भगवान की बात को भी स्वीकार करके कोई संशय उत्पन्न करने को तैयार नहीं। बस इसी प्रकार धर्म-क्षेत्र में भी साक्षात् चौथी कोटि की शान्ति की रूप रेखाओं का जीवन में संवेदन हो जाने पर, लोक की कोई शक्ति आपको आपके शान्ति पथ से विचलित करने में समर्थ न हो सकेगी। संवेदन-प्रत्यक्ष के सामने आपको गुरुजनों के आश्रय की भी आवश्यकता नहीं रहेगी । अनुभवात्मक चौथी कोटि की यह श्रद्धा ही वास्तव में सच्ची श्रद्धा कही जा सकती है। I यहाँ शान्ति के इस वैज्ञानिक मार्ग की त्रयात्मकता में अभिप्रेत श्रद्धा से तात्पर्य इस उपरोक्त चौथी कोटि की श्रद्धा है । कुल परम्परा के आधार पर हुई, या साम्प्रदायिक पक्षपात के आधार पर हुई, या गुरुओं पर भक्ति आदि की भावुकतावश हुई, या विद्वत्तावश हुई, या लोक-प्रतिष्ठावश हुई श्रद्धाओं का नाम यहाँ श्रद्धा नहीं कहा जा रहा है। श्रद्धा वास्तव में वह होती है जो बिना किसी अन्य की सहायता के स्वयं रुचिपूर्वक उस व्यापार विशेष के प्रति अन्तरंग झुकाव उत्पन्न करा देती है। जिसके कारण शीघ्रातिशीघ्र वह अपने जीवन को उस श्रद्धा के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करने लग जाता है, शक्ति को नहीं छिपाता, न ही कोई बहाने तलाश करता है, अपनी श्रद्धा को दूसरों पर जताने के लिये। जैसे- "क्या करूँ, करना तो बहुत चाहता हूँ पर कर्म करने नहीं देते। अजी गृहस्थी के जंजाल में फँसा हूँ बुरी तरह, " इत्यादि । उपरोक्त कथन पर से यह भी ग्रहण न कर लेना कि उत्तरोत्तर वृद्धि को पाती वे तीन कोटि की श्रद्धायें सर्वथा बेकार हैं । नहीं, ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो आप उस मार्ग पर पग ही न रखते। इसलिये पहले पहल मार्ग पर अग्रसर कराने के लिये, तथा उस ओर का उत्तरोत्तर अधिकाधिक उल्लास उत्पन्न कराने के लिये वे श्रद्धायें अवश्य अपना महत्त्व रखती हैं । परन्तु उनमें सन्तोष पा लिया है जिसने, उसका निषेध करने के लिये, तथा वास्तविक सच्ची श्रद्धा का सुन्दर रूप दर्शाने के लिये अथवा भ्रम मिटाने के लिये ही इतना कथन किया गया है। अन्धविश्वास भी जिसको नहीं है, ऐसे विलासी जीवों की अपेक्षा तो वह कुछ अच्छा ही है क्योंकि भले अन्धविश्वास के आधार पर ही सही, शान्ति की खोज करने तो लगा है वह । शान्ति का अनुभव कर लेने पर खुल जायेगा इस अन्ध-श्रद्धान का रहस्य, और प्रसन्न होगा यह जानकर कि उसके द्वारा किया गया वह झूठा श्रद्धान भी सच्चे के अनुरूप ही निकला । परन्तु अन्धश्रद्धान आँख मीचकर ही नहीं कर लेना चाहिये । बात-बात में परीक्षा करते हुये चलना है । अत: केवल उन्हीं की बात पर श्रद्धा करनी योग्य है, जिनका जीवन स्थूल दृष्टि से शान्त दिखाई दे, जिनके उपदेश का लक्ष्य शान्ति हो तथा जिनकी कथन पद्धति भी शान्त हो । स्वार्थी जनों का भोगों के प्रति आकर्षण कराने वाला उपदेश, इस मार्ग का बाधक व अभिलाषा-वर्धक होने के कारण स्वीकार करने योग्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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