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५. शान्ति मार्ग
४. चारित्र
४. चारित्र-त्रयात्मक मार्ग के प्रथम अंग का कथन पूरा हुआ। ज्ञान नामक द्वितीय अंग का कथन आगे यथास्थान किया जाएगा। अब उसके तृतीय अंग ‘चारित्र' का कथन चलता है ।
"चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥" चारित्र का अर्थ है धर्म अर्थात् जीव का स्वभाव और वह होता है समता स्वरूप । आत्मा या जीव की वह स्वाभाविक परिणति ही समता का लक्षण है जिसमें न है मोह और न है क्षोभ, अर्थात् जिसमें न है स्थान तात्त्विक अविवेक को और न है अवकाश इन्द्रिय मन तथा चित्त की चंचलता को । तात्त्विक अविवेक की निवृत्ति हो जाती है विवेक ज्ञान से, जिसका उल्लेख आगे किया जाने वाला है। चंचलता क्या और उसका अभाव क्या इस विषय में थोडी
नकारा यहा दे देना आवश्यक है । इस सम्बन्ध में आप कुछ न जानते हों ऐसा भी नहीं है । नित्य के अनुभव की बात है।
कौन नहीं जानता कि उसकी पाँचों इन्द्रियाँ एक क्षण को भी विश्रान्त होकर नहीं बैठती । एक विषय को छोड़कर दूसरे पर और दूसरे को छोड़कर तीसरे पर सदा भागती रहती हैं। अभी चलो होटल में और अभी सिनेमा में । अब रेडियो सुनो और अब करो शरीर का श्रृंगार । इन्द्रियाँ बेचारी क्या करें? ये तो ठहरी सेविकायें मन की। जो आज्ञा मिलती है वही करती हैं। इन सबका स्वामी तो मन है । विविध प्रकार के संकल्प-विकल्प करना ही उसका स्वरूप है। यह वस्तु मुझे इष्ट है यह अनिष्ट, यह शत्रु है यह मित्र, यह सज्जन है यह दुर्जन, यह सुख है यह दुख, यह जन्म है यह मरण, यह पुण्य है यह पाप, यह धर्म है यह अधर्म इत्यादि न जाने कितने परस्पर विरोधी द्वन्द्वों की वासनायें पड़ी हैं इसके गर्भ में । अनन्त है उसका विस्तार । इन्हीं वासनाओं से प्रेरित होकर सदा आज्ञा देता रहता है यह इन्द्रियों को, सदा दौड़ाता रहता है यह इन्द्रियों को, इस वस्तु को प्राप्त करो, इसका त्याग करो, इसका संरक्षण करो, इसका नाश करो और जाने क्या क्या । यही कारण है कि एक क्षण को भी विश्राम नहीं मिलता जीवन में।
चिन्ताओं का भार लिये प्रात: बिस्तर से उठना, दो चार लोटे पानी के जल्दी से शरीर पर डाल, उल्टे सीधे कपड़े पहन, मोटरकार पर सवार हो किसी एक दिशा में चल देना, घर में बीवी-बच्चों को तथा माता-पिता को एक निराशा की उलझन में छोड़कर । कुछ घण्टों में जल्दी-जल्दी कभी इधर दौड़ और कभी उधर आगे-आगे दौड़ और पीछे-पीछे छोड़ करता लगभग ३० मील का चक्कर लगा लिया। दस दफ्तरों में स्वयं जाकर हो आये,३० से टेलीफोन पर बात कर ली, और दोपहर को खाना खाने के समय लौट आए घर पर, कुटुम्बियों के चेहरे पर संतोष की धीमी सी रेखा खेंचते । खाना खाने बैठे, दो चार टुकड़े खाए, टेलीफोन की घण्टी बजी और खाना बीच में ही छोड़ भागे । पुन: वही मोटरकार, वही सड़क, वही दफ्तर, घर में बीवी-बच्चे व माता-पिता पुन: उदास । बिना खाए चले जो गए हैं आप । दिन भर की दौड़ धूप से थके-मांदे लौटे घर पर रात्रि को ९ बजे बिल्कुल सोने के समय । न बीवी से बात, न बच्चों से हँसी, न माता-पिता को सांत्वना के दो शब्द, सो गए । सो क्या गए, रात बिता दी चिन्ताओं में कि कल को यह करना है और वह करना है । प्रात: हो गई, पुन: वही चक्र।
यह है बाह्य जीवन का स्थूल-क्षोभ, जिसका कारण है मनोगत उपर्युक्त सूक्ष्म-क्षोभ । दोनों ही प्रकार के क्षोभ का अभाव चारित्र या धर्म है और वह है वास्तव में वही विश्रान्ति या शान्ति जिसका कथन चल रहा है। इसे आप समता कहो, साम्यता कहो, माध्यस्थता कहो, शुद्धभाव कहो, या कहो वीतरागता । सभी शब्दों का अवसान होता है उसी प्रधान अर्थ में अर्थात् शान्ति में। . समता का अर्थ है सब में समान भाव-मैं तू में, यह वह में, स्त्री पुरुष में, बालक वृद्ध में, निर्धन सधन में, मूर्ख विद्वान् में, ऊँच नीच में, ब्राह्मण चाण्डाल में, मनुष्य तिर्यंच में, गाय कुत्ते में, हाथी चींटी में, स्वर्ण पाषाण में, लाभ अलाभ में । मोह का अभाव हो जाने के कारण अथवा तात्त्विक विवेक जागृत हो जाने के कारण, सभी पदार्थों में तत्त्व का दर्शन करने वाले उस महाभाग के चित्त में इन विषमताओं को अवकाश कहाँ ? और इन विषमताओं के अभाव में इष्टानिष्ट आदि उपर्युक्त द्वन्द्वों को प्रवेश कहाँ ? न है उसके लिये कुछ इष्ट न अनिष्ट, न शत्रु न मित्र, न सज्जन न दुर्जन, न सुख न दुख, न जन्म न
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