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________________ २६. संयम १७० ५. इन्द्रिय-संयम बुरी का भाव लाकर, रागद्वेष-जनक व्याकुलता उत्पन्न करना और अपनी शान्ति को घातना नहीं चाहिये, दोनों में ही साम्यता रखनी चाहिये, जैसे कि पहले देव व गुरु के आदर्श-जीवन में देख आया है । परन्तु फिर भी अपनी शक्ति का संतुलन करने पर तुझे ऐसा लगता है, कि प्रयत्न करने पर भी सम्भवत: दुर्गन्धि आने पर तेरी नाक सुकड़े बिना न रह सके, क्योंकि उसके प्रति घृणा के कुछ दृढ़-संस्कार ही ऐसे पड़े हुये हैं। खैर यदि ऐसा है तो भले दुर्गन्धि के प्रति की ग्लानि वर्तमान में न छूटे, परन्तु सुगन्धि के प्रति का झुकाव छोड़ने में तो तेरे गृहस्थ-जीवन में या दैनिक-चर्या में कोई बाधा नहीं पड़ सकती । बल्कि इसके त्याग से तुझको लौकिक व अलौकिक दोनों प्रकार का लाभ ही होगा, आर्थिक दृष्टि से और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी। आर्थिक-दृष्टि से देखने पर इस विषय पर काबू पा लेने के पश्चात्, पाउडर, क्रीम, वैसलीन, सैण्ट आदि अनेकों ऐसे बेकार पदार्थों की कोई आवश्यकता न रह जायेगी तुझे जिनमें कि तेरी आय का एक बड़ा भाग व्यय हो जाता है। इस प्रकार तेरे व्यय में न्यूनता हो जाने से स्वाभावत: धनोपार्जन सम्बन्धी तेरा भार कुछ कम हो जायेगा, तत्सम्बन्धी चिन्ताओं से निवृत्ति के कारण तू कुछ समय बचा सकेगा, और शान्ति की उपासना के मार्ग पर सुगमता से अग्रसर होने का अवसर प्राप्त कर सकेगा । स्वास्थ्य की दृष्टि से देखने पर उन उपरोक्त पदार्थों के कारण उत्पन्न होने वाले बालों की सफेदी, नजला तथा अन्य भी कई इसी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जायेगा । अत: पूर्णतया न सही परन्तु केवल सुगन्धि के प्रति का राग छोड़कर इस विषय का भी एकदेश त्यागी तू अवश्य बन सकता है। (४) अब देखिये नेत्र-इन्द्रिय सम्बन्धी विषय को जिसका काम है देखना, राग-भाव से व द्वेष-भाव से जैसे कुटुम्बी जनों को तथा किसी शत्रु को, करुणा-भाव से व क्रूर-भाव से जैसे अपने रोगी पुत्र को और सर्पादि को, प्रेम से व भय से जैसे स्व-स्त्री को और सिंह को, बहमान से व मनोरंजन से जैसे देव व गरु को अथवा धार्मिक उत्सवों को और सिनेमा आदि को, तथा इसी प्रकार अन्य भी अनेकों विरोधी अभिप्रायों से देखना। इन सर्व अभिप्रायों में राग से, निर्विकार-भाव से, करुणा से, प्रेम से व बहुमान इत्यादि भावों से देखे बिना वर्तमान अवस्था में चलना प्रतीत नहीं होता तो न सही; परन्तु द्वेष-भाव से, विकृत-भाव से, क्रूर भाव से, भय से तथा मनोरंजन आदि के भावों से देखने का त्याग तो सहज ही कर सकता है, और इन दृष्टियों के त्यागने से तेरी दैनिक चयां में बाधा आने की बजाय लौकिक व अलौकिक दोनो रीति से कुछ सुन्दरता ही आयेगी । लोक में होने वाले अपयश से बचेगा, यह है लौकिक सुन्दरता । सिनेमा आदि मनोरंजन के साधनों से मिलती है नि:शुल्क शिक्षा सर्व खोटी बातों की तथा व्यसनों की । देश में प्रचलित डाके मारने के लिये नये-नये ढंग, जेबकतरी, व्यभिचार-सेवन, मद्य व मांस का सेवन, नये-नये श्रृंगार व फैशन, इन सबके प्रचार-केन्द्र वास्तव में ये सिनेमा आदि ही तो हैं । अत: इनको देखने का त्याग करने से अनेकों व्यसनों से तू अपनी रक्षा कर सकेगा। इसके अतिरिक्त विकारी भाव से उत्पन्न होने वाले कषाय से प्रेरित जो वेश्यागमन आदि महान अपराध हैं, उनसे भी बचा रहेगा। इसी प्रकार इन अपराधों के कारण होने वाले व्यर्थ के अपव्यय की चिन्ता से बच जायेगा। धनोपार्जन सम्बन्धी भार से छुटकारा और अन्य भी अनेकों लाभ होंगे। अत: यदि पूर्ण नहीं तो आंशिक रूप से अवश्य आज भी इस नेत्र-इन्द्रिय सम्बन्धी उपरोक्त अनावश्यक अंग को छोड़कर तू संयमी बन सकता है। (५) अब लीजिये पाँचवी श्रोत्र इन्द्रिय की बात। गृहस्थ-क्षेत्र में, व्यापार-क्षेत्र में तथा धार्मिक-क्षेत्र में कटम्ब वालों की, ग्राहकों की और गुरुजनों की या उपदेशकों की बातें सुनना अथवा धार्मिक भजन सुनना तो आवश्यक अंग होने के कारण छोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु सिनेमा के अश्लील गाने सुनने का त्याग करने से तुझे क्या बाधा पडेगी? इसमें तो निहित है तेरा लाभ । सिनेमा पर होने वाले तथा रेडियो, ग्रामोफोन आदि पर होने वाले व्यर्थ के व्यय से बचेगा और इस प्रकार धनोपार्जन सम्बन्धी भार हल्का पड़ेगा। जो समय इन कार्यों में व्यर्थ जाता है वह बच जायेगा जिसे तू उपयोग में ला सकेगा निज-हितार्थ । इसके अतिरिक्त श्रोत्र-इन्द्रिय का एक और भी विषय है, बड़ा भयानक परन्तु ऊपर से देखने में सुन्दर, जिस सुन्दरता से आकर्षित होकर साधारण मनुष्य की तो बात नहीं धार्मिक क्षेत्र में आगे बढ़े हुये व्यक्ति-विशेष भी धोखा खाये बिना नहीं रहते । ऐसी पटखनी खाते हैं कि चारों खाने चित्त नीचे आते हैं, और उस खाई में जा पड़ते हैं जहाँ से वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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