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________________ २६. संयम १७१ ७. पञ्च-पाप कब निकल सकेंगे यह कौन जाने। वह विषय है निज-प्रशंसा के शब्द सुनकर उनके प्रति का मिठास व झुकाव । शान्ति के उपासक को इस दुष्ट विषय से पद-पद पर सावधानी रखने की आवश्यकता है। (६) पाँचों इन्द्रियों की बात हो चुकी, परन्तु इन पाँचों के अधिपति मन की बात शेष रह गई, जिससे इन पाँचों को प्रेरणा मिल रही है, जिसके बल पर इन पाँचों का बल है, जिसके जीवित रहने पर ये पाँचों जीवित हैं तथा जिसकी मृत्यु से इन पाँचों की मृत्यु है। इस मन का कोई एक निश्चित विषय नहीं है, पाँचों ही इन्द्रियों के विषय इसके विषय हैं। जिस प्रकार देवपजा, गरु-उपासना व स्वाध्याय के प्रकरण में बताया जा चुका है तथा स्पर्शनेन्द्रिय-दमन सम्बन्धी विषय के साथ भी बताया जा चुका है, प्रत्येक क्रिया के दो अंग हैं, जो सदा साथ-साथ रहते हैं—एक अंतरंग-अंग और दसरा बाह्य अंग । यहाँ भी अर्थात् इन्द्रिय-संयम के प्रकरण में भी वही बात है । प्रत्येक इन्द्रिय का बाह्य-विषय तो है उन-उन पदार्थों का ग्रहण और अन्तरंग-विषय है उनका ग्रहण होने पर अन्तरंग में उत्पन्न होने वाली मिठास, रुचि व झुकाव, जो कि मुझे आगे-आगे पुन: पुन: अधिक-अधिक उन-उन विषयों के ग्रहण की प्रेरणा देता है तथा अत्यन्त आसक्त व गृद्ध बनाकर मुझे उसके उपभोग में ऐसा फंसा देता है कि उनसे छूटने का भाव मेरे अन्दर उत्पन्न न होने पावे, हिताहित का विवेक भी जाता रहे। इन सर्व इन्द्रियों के अन्तरंग विषय मिलकर एक मन का विषय बन जाता है । अत: मन को काबू करने के लिये पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी अनावश्यक व आवश्यक विषयों के प्रति का झुकाव अन्तरंग में न होने देने के लिये सावधानी रखनी आवश्यक है। इस प्रयास से भी गृहस्थी-सम्बन्धी किसी चर्या में बाधा आना सम्भव नहीं। इसके अतिरिक्त भी आगे-आगे के प्रकरणों में आने वाली सर्व अन्तरंग क्रियायें मन की विषय हैं । उन सर्व ही अन्तरंग क्रियाओं का यथायोग्य त्याग, विवेकपूर्वक सावधानी के साथ निर्बाध रीति से करने का नाम ही है मन का संयम । इसको वश में करने पर सब इन्द्रिय सहज ही वश में हो जायेंगी । इस प्रथम भूमिका में इस ही को मुख्यत: वश में करने की बात चलती है। ६. प्राण-संयम-शान्ति-प्राप्ति की साधना के अन्तर्गत संयम का कथन चलता है। जैसा कि पहले बताया गया था, वह दो प्रकार का है-इन्द्रिय-संयम और प्राण-संयम । इन्द्रिय-संयम की बात हो चुकी और अब चलती है प्राण-संयम की बात । जीव के दस प्राणों का तथा उनकी अपेक्षा जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन जीव -तत्त्व के अन्तर्गत आ चुका है। (देखो ७.२) । प्राण संयम का अर्थ है इस प्रकार की सावधानी कि मेरे दैनिक जीवन में मेरे द्वारा मन से, वचन से अथवा काय से कोई भी इस प्रकार की प्रवृत्ति न हो जिसके कारण कि चींटी से लेकर मनुष्य पर्यन्त किसी भी छोटे या बड़े व्यवहारगत प्राणी के प्राणों को, साक्षात रूप से या परम्परा रूप से किसी भी प्रकार पहुँच सके । न केवल आयु नाम वाले प्रधान प्राण को अथवा काय या शरीर नाम वाले प्राण को प्रत्युत किसी भी प्राण को; न पाँचों इन्द्रियों में से किसी भी एक इन्द्रिय को, न मन को, न वचन को, न काय को, न श्वासोच्छवास को और न आयु को। न केवल उनको नष्ट-भ्रष्ट न करना, प्रत्युत पीड़ित न करना । प्राण-संयम का यह व्यापक लक्षण समझ न पाने के कारण ही पृथ्वी पर देख-देखकर पग रखने वाले तथा अन्नको बीन-बीनकर खाने वाले संयमीजन भी वास्तव में रह जाते हैं असंयमी। यह जाने बिना कि मेरी किस-किस प्रकार की प्रवृत्ति से किस के किस प्राण को किस प्रकार की पीड़ा पहुँच रही है, संयम का यह विवेक धारण करना सम्भव नहीं। यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे द्वारा क्षुद्र जीवों को इतनी पीड़ा नहीं पहुंच रही है जितनी कि मनुष्य को, स्वयं मेरे भाई को, शरीर के द्वारा नहीं, वचन के द्वारा, मन के द्वारा । निन्दा, चुगली तथा व्यंग आदि रूप मर्मच्छेदी वचनों द्वारा मैं किस प्रकार उसका कलेजा छलनी करता रहता हूँ, यह मुझे पता ही चलने नहीं पाता । __७. पञ्च-पाप-अपनी सर्व प्रवृत्तियों को प्राण-पीड़ा की अपेक्षा में पाँच कोटियों में विभाजित कर सकता हूँ। हिंसा के द्वारा, असत्य के द्वारा, चोरी के द्वारा, व्यभिचार-सेवन के द्वारा, और संशय या होर्डिंग के द्वारा जिसका नाम परिग्रह भी है। इन्हें आगम में पाँच पाप कहकर बताया गया है। प्राणियों को पीडा-कारक होने से ये पाँचों जाति की मेरी प्रवृत्तियें पापरूप हैं, इसमें कोई संशय नहीं। अब पृथक्-पृथक् इन पाँचों पापों का विश्लेषण करता हूँ, तनिक ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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