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२६. संयम
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७. पञ्च-पाप
देना क्योंकि इस विश्लेषण ये यह बात ध्यान में आए बिना न रहेगी कि अपनी जिन प्रवृत्तियों को मैं न्याय-संगत माना करता हूं वे भी अन्यायरूप हैं, पापरूप हैं। मुझे ऐसी सर्व प्रवृत्तियों से बचना है, अपने जीवन को संकोचकर केवल निज-शान्ति में केन्द्रित करना है। भोग-विलास का यह मार्ग नहीं है। बहुवर्णनीय होने के कारण हिंसा का कथन बाद में करूँगा, पहले असत्यादि चार पापों का कथन करता हूँ।
(१) क्रोधवश कहे जाने वाले कटु व तीखे शब्द या गाली के शब्द, द्वेषवश कहे जाने वाले व्यंगात्मक शब्द, लोभवश कहे जाने वाले छल-कपट भरे शब्द, हँसी ठढे वश कहे जाने वाले कुछ अनिष्टकारी शब्द, मानवश कहे जाने वाले मर्मच्छेदी शब्द, इस प्रकार के शब्द बोलकर मैं किसी के अन्त:करण में दाह उपजाता हूँ । स्पष्ट झूठ बोलकर, चुगली या निन्दा करके, अनिष्टकारी या खुशामद के शब्द बोलकर झूठे कागज व दस्तावेज आदि बनाकर मैं प्राणियों के मन को ठेस पहुँचाता हूँ। किसी की धरोहर मेरे पास रखी हो, उसका स्वामी भूल गया हो या पूरी याद न रख पाया हो, और लेने आवे तो कमती माँगता हो, उस समय उसे पूरी याद दिलाने में चुप खेंचकर, किसी का रहस्य स्वयं उसके द्वारा बताया हआ अथवा अपने आप किन्हीं अन्य साधनों से या उसकी मुखाकृति आदि पर से जान
किसी पर प्रकट करके, इसी प्रकार अन्य भी वचन सम्बन्धित अनेकों विकल्पों में किसी के अन्तर्माणों को अर्थात् मानसिक प्राणों को पीडा पहुँचाता हूँ। ऐसी प्रवृत्ति का नाम असत्य प्रवृत्ति है। यहाँ असत्य का अर्थ केवल झूठ बोलना नहीं, बल्कि प्रत्येक अनिष्ट व कटुवचन वास्तव में असत्य है । सत्य भी वचन यदि अहितकारी है या कटु है तो वह भी यहाँ असत्य की कोटि में समझा जाता है।
(२) विभिन्न जाति के प्राणियों ने अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार पदार्थों का जो सञ्चय किया हुआ है, वह सब उन-उन प्राणियों का धन है । इस धन को भी जीवन का बाह्य-प्राण कहा जाता है क्योंकि इसकी तनिक सी भी बाधा यह प्राणी सहन नहीं कर सकता, और कदाचित इस धन के लिये अपने उपरोक्त दस प्राणों को भी न गिनते हुये आत्म-हत्या तक कर लेता है । यहाँ धन शब्द का अर्थ रुपया-पैसा मात्र नहीं है बल्कि जैसा कि ऊपर बताया गया है प्राणियों का स्व-स्व-योग्य पदार्थ संचय है। इस धन का अपहरण करके मैं उन्हें पीड़ा पहँचाता हूँ। अथवा कुछ देर के लिये छोड़े गए किसी शून्य-आवास आदि में ठहरकर अथवा सबका स्वामित्व जहाँ हो ऐसी धर्मशाला आदि स्थानों में आवश्यकता से अधिक स्थान रोककर या अपने रोके हुये स्थान में दूसरे को आने की आज्ञा न देकर मैं दूसरों के दुःख का कारण बन जाता हूँ। अथवा बिना किसी के दिये या देने की अन्तरंग भावना किये, किसी अपने परिचित मित्र की कोई भी वस्तु लेकर अथवा लेने की इच्छा करके अथवा यह कहकर कि यह तो मुझे अच्छी लगती है, मैं वास्तव में उसके हृदय को दःख पहँचाता हूँ; क्योंकि लिहाज के कारण वह यदि बाहर से इन्कार नहीं करता तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह इस वस्तु का विरह स्वीकार करता है । अथवा बिना दातार के आहार ग्रहण करके, या अयोग्य आहार ग्रहण करके भी मैं किन्हीं प्रेमीजनों के हृदय को दुःख पहुँचाता हूँ । इतना ही नहीं धर्म के नाम पर व्यर्थ के वाद-विवाद द्वारा अनेकों की श्रद्धा को ठेस पहुँचाता हूँ, उस श्रद्धा को जो कि उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इस प्रकार की मेरी सर्व प्रवृत्तियें दूसरों के बाह्य या अभ्यन्तर धन का अपहरण करने के कारण चोरी में गर्भित है। इनके अतिरिक्त मानसिक प्राणों का भी अपहरण करता हूँ-स्थूल व प्रसिद्ध चोरी करके, चोरी का माल लेकर, चोरी करने सम्बन्धी उपाय अन्य को बताकर, चोरी करने के उपयुक्त हथियार बनाकर या दूसरे किसी को देकर, चोर को आश्रय देकर, राज्य नियम के विरुद्ध काम करके, टैक्स व रेल आदि का किराया बचाकर, कमती-बढ़ती बाट, गज आदि तोलने तथा मापने के उपकरण रखकर, किसी चालाकी से कम तोलकर या कम मापकर, अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तुएँ मिलाकर, होर्डिंग करके अर्थात् 'भाव बढ़ जाने पर बेचूंगा' इस अभिप्राय से गोदामों में माल रोककर, आज्ञा से अधिक सवारी मोटर में बैठाकर, चोर-बाजार में माल बेचकर, घूस लेकर, तरस्करी करके इत्यादि अनेक ढंगों से मैं प्राणियों को पीड़ा दे रहा हूँ, नित्य चोरी किये जा रहा हूँ।
(३) साक्षात स्त्री-संभोग के अतिरिक्त, स्त्री-पुरुष संयोग सम्बन्धी बातें सुनने व कहने में आसक्त होकर, तिर्यञ्चों का संभोग देखकर, शरीर के विशेष मनोहर अंगोपांगों की ओर दृष्टिपात करके, पूर्व में की गई मैथुन क्रियाओं
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