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२६. संयम
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८. हिंसा
जाय,
का स्मरण करके, गरिष्ट व तामसिक भोजन करके, शरीर का ऐसा शृंगार करके जिसे देखकर दूसरे का चित्त विकृत हो मैं 'सदा व्यभिचार सेवन करता हूँ । पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करके अथवा विवाहित या अवाहित व्यभिचारी या सुशील स्त्रियों के घर पर जाकर या एकान्त में उनसे वचनालाप करके, या अपने शरीर के अंग-विशेषों का पुनः पुनः स्पर्श करके, हस्त मैथुन करके अथवा अंतरंग में काम-वासना उत्पन्न करके तथा अन्य भी अनेकों ढंगों से मैं व्यभिचार सेवन किया करता हूँ। मेरी इस प्रवृत्ति का नाम अब्रह्म, कुशील सेवन या व्यभिचार है। इस प्रवृत्ति के द्वारा असंख्यात छोटे-छोटे कीटाणुओं को पीड़ा पहुँचाने के अतिरिक्त मैं उन उन स्त्रियों के तथा उनके स्वामियों या माता-पिताओं के हृदय को अतीव वेदना पहुँचाता हूँ और साथ-साथ अपने मन तथा काय-बल का भी नाश करता हूँ ।
(४) आवश्यकता से अधिक धन-धान्य, कपड़ा-जेवर, बर्तन, खेत तथा जायदाद, पशु, दास-दासी आदि रखकर अथवा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करके या अच्छे न लगने वाले पदार्थों से द्वेष करते हुये उन्हें दूर करने की इच्छा करके भी मैं अनेकों को पीड़ा पहुँचा रहा हूँ। मेरी इस प्रवृत्ति का नाम है परिग्रह भाव । सविस्तार विवेचन आगे यथास्थान किया जाने वाला है । (दे० अधिकार ३३)
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८. हिंसा - किसी को जान से मार देना मात्र हिंसा नहीं है। वह तो केवल उस का राजदण्ड़ घोररूप है। हिंसा की व्यापकता में तो अनेकों इस प्रकार की प्रवृत्तियां सम्मिलित हैं जो मैं अपने दैनिक जीवन में नित्य करता रहता हूँ और जिन्हें करने में राजदण्ड़ का भी कोई भय नहीं होता । यथा — किसी पालतू पशु को खूंटे के साथ इतनी छोटी रस्सी से बान्धना कि वह ठीक से हिलडुल या बैठ-उठ न सके । पक्षियों को मनोरंजन के लिये पिञ्जरें में रखना, निशानी करने के लिये पालतू पशु की पूँछ आदि काट देना, छेद देना, भेद देना अथवा उसकी पीठ पर दाग लगा देना, नेत्र आदि उसकी कोई इन्द्रिय फोड़ देना, खस्सी करना, अधिक भार लादना और न चल सके तो निर्दयता से पीटना; गाय, भैंस दूध न दे तो उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना, इंजेक्शन लगाकर दूध निकालना, क्रोधवश उसे आहार न देना । इसी प्रकार अपने आश्रित किसी सेवक से अधिक काम लेना, न करे तो उसका वेतन रोक लेना या काट लेना या कम देना इत्यादि । चींटी, पतंग आदि क्षुद्र जीव तो मेरी असावधानी के कारण मरतें या पीडित होते ही रहते हैं— चलते समय पाँव के नीचे दबकर, वस्तु को उठाते धरते समय उसके नीचे पिसकर, मल-मूत्र आदि में दबकर अथवा नाली में बहकर, रात्रि को भोजन करते समय उस भोजन में फटाफट पड़कर, दीपक की लौ पर जलकर अथवा बिजली के बल्ब के साथ टकराकर, इत्यादि ।
इतना ही क्यों, यह तो केवल शरीर द्वारा की गई हिंसा के कुछ स्थूल उदाहरण मात्र हैं। वास्तव में तो हिंसा होती है मन तथा वचन के द्वारा, जो प्रतिक्षण बराबर चला करती है, गृहस्थों में ही नहीं त्यागियों में भी और यह पता नहीं चल पाता कि मैं हिंसा कर रहा हूँ । व्यापकता से देखने पर असत्य आदि पूर्वोक्त चारों पाप भी वास्तव में हिंसा ही हैं क्योंकि किसी न किसी प्रकार उनसे प्राणियों के प्राण पीडित होते ही हैं ।
इतना ही नहीं हिंसा के विश्वव्यापी विराटरूप में न जाने क्या-क्या तथा कैसे-कैसे अपराध भरे पड़े हैं, स्थूल तथा सूक्ष्म । उन सबका किंचित अनुमान करने के लिये हिंसक प्रवृत्तियों के अनेकों भंग करके दर्शाता हूँ । ये पाँचों ही पाप मैं मन के द्वारा करता हूं अर्थात् मन में वैसा करने का विचार करता हूँ । वचन के द्वारा करता हूँ अर्थात् उनका कथन कर-करके या सुन-सुन के प्रसन्न होता हूँ । काय के द्वारा करता हूँ जैसा कि अब तक दर्शाया गया है । मन, वचन व काय के द्वारा इन पाँचों पापों को मैं स्वयं तो करता ही हूं, दूसरे को भी करने के लिये उकसाता हूँ और किसी को करता देखकर मन ही मन प्रसन्न भी होता हूँ । इन नौ भंगो से उन पाँचों पापों को करने के लिये कभी तो प्रयत्न मात्र करके रह जाता हूँ, कभी तदर्थ कुछ सामग्री मात्र जुटाकर रह जाता हूँ और कभी-कभी साक्षात् रूप से कर भी गुजरता हूँ । इस प्रकार उनके २७ भंग हो जाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों से पृथक्-पृथक् प्रेरित होकर करने के कारण वे ही १०८ बन जाते हैं । इनको पाँचों पापों से पृथक्-पृथक् गुणा करने पर हिंसा के ५४० भंग बन जाते हैं । छ: कायवाले जीवों के प्रति लागू होने से ये ही ३२४० और प्रायः चार प्रयोजनों से प्रवृत्त होने के कारण १२९६० हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यान्य भी असंख्यातों भंग बनाए जा सकते हैं ।
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