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२६. संयम
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९. संयम का प्रयोजन
पकडना
नित्य व्यवहार में आने के कारण हिंसा के ये चार प्रयोजन यहाँ विशेष रूप से वर्णनीय हैं, जिनके कारण हिंसा चार प्रकार की मानी जाती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी तथा विरोधी। निष्प्रयोजन केवल मनोरंजन के अभिप्राय से या कषायवश की जाने वाली हिंसा संकल्पी कहलाती है, जैसे मांस के लिये पशुवध करना, शिकार खेलना, मछली और मनोरंजन के
के लिये तीतर आदि को अथवा पशुओं को लड़ाना आदि । व्यापार-धन्धे में होने वाली हिंसा उद्योगी है, जैसे अन्न के कारोबार में होने वाली सुरसी आदि की हिंसा अथवा किसी बड़े कारखाने में होने वाली अनेक प्रकार की हिंसा । घर में काम-धन्धे में होने वाली हिंसा आरम्भी है, जैसे घर की लिपाई तथा सफाई में होने वाली अथवा खाना बनाने में होने वाली हिंसा । अपने तथा कुटुम्बियों के अथवा देश के जान माल तथा मान की रक्षा के लिये की जाने वाली हिंसा विरोधी कहलाती है, जैसे चोर-डाकुओं के साथ तथा आतताइयों के साथ युद्ध आदि करना ।
वास्तव में हिंसा या अहिंसा के दो शब्द जो आज प्राय: सुनने में आ रहे हैं, व्यापक अर्थ में पुयक्त किये जाने योग्य हैं। किसी प्राणी को जान से मार देना तो हिंसा और जान से न मार देना मात्र अहिंसा ऐसा नहीं है । इनका बड़ा व्यापक अर्थ है । उपरोक्त सर्व १२९६० प्राण-पीड़ा के भंग तथा अन्य भी संभव अनेकों विकल्प, जिनके द्वारा किसी भी प्राणी को शारीरिक, वाचिक व मानसिक पीड़ा तथा बाधा हो, हिंसा में समावेश पा जाते हैं । सूक्ष्मरूप से देखने पर जो कार्य अहिंसात्मक दिखाई देते हैं उनमें भी किसी न किसी रूप में हिंसा रहती ही है। दृष्टान्त के रूप में, मैं प्रयत्नपूर्वक चला जा रहा हूँ और कुछ पक्षी वहाँ बैठे हों जिनको मेरे निकट आ जाने से कुछ भय प्रतीत हो और वे वहाँ से उड़ जायें, तो उस मार्ग पर उन कबूतरों के निकट मेरा जाना हिंसा होगा । चींटी आदि को उनके प्राणों की रक्षार्थ मार्ग से हटाकर एक ओर सरका देना भी हिंसा है, क्योंकि ऐसा करने से सम्भवत: उनके उस आन्तरिक अभिप्राय को धक्का पहुंचा है, जिसको लिये हुये वे अमुक दिशा में जा रहे थे, इत्यादि अनेकों प्रकार से हिंसा का व्यापक अर्थ है । कहाँ तक कहा जाय और याद भी कैसे रहेंगे इतने विकल्प अत: एक छोटी सी पहिचानं बताता हूँ, यह जानने की कि कौन क्रिया हिंसात्मक है और कौन अहिंसात्मक । अपनी प्रत्येक क्रिया को इस कसौटी पर कसकर देखने पर बड़ी सरलता से हिंसा व अहिंसा की परीक्षा हो जाएगी। दूसरे के द्वारा होने वाली जो भी क्रिया मुझे अपने लिये अरुचिकर हो, बस वह क्रिया हिंसात्मक है और जो रुचिकर हो सो अहिंसात्मक । अत: मैं कोई भी ऐसी क्रिया किसी छोटे या बड़े जीव के प्रति न करूँ जो स्वयं मुझे अपने प्रति पीड़ा-प्रदायक भासती हो।
ऐसी सर्व हिंसात्मक प्रवृत्तियों का अपने जीवन में पूर्णतया निरोध करने का नाम है पूर्ण प्राण संयम या सकलप्राण संयम जो मुनियों तथा साधुओं में ही सम्भव है। आंशिक रूप से इसका निरोध करने का नाम है एकदेश-प्राण संयम । भले ही पूर्णतया मैं इन सब प्रवृत्तियों से मुक्त होने की वर्तमान में क्षमता न रखता हूँ, परन्तु शक्ति अनुसार इन सब १२९६० विकल्पों में से कुछ भंगों का पूर्ण त्याग और कुछ का एकदेश या अल्प-त्याग करने को इस अवस्था में भी अवश्य समर्थ हूँ। इस विषय का विस्तार आगे अहिंसा वाले अधिकार में किया जाने वाला है। (दे० अधिकार २७)
९. संयम का प्रयोजन आज संयम को अधिकतर लोकेषणा की पुष्टि के लिये किया जा रहा है। प्रतिष्ठा के लिये, ख्याति लाभ पूजा के लिये इसको धारण करने वाले आज बड़े वेग से इस ओर बढ़े चले आ रहे हैं। परन्तु लोक-कल्याण की बात तो दूर रही, क्या उनका अपना कल्याण भी हो रहा है इससे, यह विचारणीय है ? इस बात की परीक्षा है शान्ति जो संयम का वास्तविक प्रयोजन है। यदि फलस्वरूप, संयम से इसी जीवन में, तत्क्षण, शान्ति का, भूमिकानुसार वेदन न हुआ तो उसका संयम निरर्थक ही रहा, और ऐसे संयम से इस मार्ग में कोई लाभ नहीं । संयम का अर्थ है विकल्प-दमन, जो साक्षात् शान्ति स्वरूप है, इसलिये संयम की यथार्थता व अयथार्थता की परीक्षा होती है अन्तरंग में विकल्प-दमन से, न कि बाह्य की शारीरिक क्रियाओं से।
___ जैसा कि साधना अधिकार में तथा देवपूजा आदि प्रकरणों में बराबर बताया जाता रहा है, लौकिक व अलौकिक सर्व प्रयोजनों में दो क्रियायें युगपत चला करती हैं—एक बाह्य में दीखने वाली शारीरिक क्रिया तथा दूसरी अन्तरंग में वेदन की जाने वाली अन्तरंग क्रिया। अन्तरंग में विकल्पों के आंशिक अभाव अथवा शान्ति के वेदन से रहित केवल
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