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________________ २६. संयम १७५ १०. विश्व प्रेम बाह्य शारीरिक क्रिया प्रयोजन की सिद्धि करने में असफल रहने के कारण निरर्थक है । अत: यदि कुछ पुरुषार्थ करने को उद्यत हुआ है तो उसको यथार्थ रीति से कर, जिससे कि वह किया हुआ पुरुषार्थ व्यर्थ न जाने पावे। इन्द्रिय-संयम में इन्द्रिय-विषयों का आंशिक त्याग और प्राणसंयम में यथाशक्ति अहिंसा का पालन केवल इसी अभिप्राय से होना चाहिये कि तत्-तत् विषय सम्बन्धी रागद्वेषात्मक इष्टानिष्ट विकल्पजाल हृदय में उत्पन्न होकर मुझे व्याकल न बना दे। इस प्रयोजन के अर्थ ही पग-पग पर इस बात की सम्भाल रखकर चलना है कि क्या प्रयोजन का अर्थात शान्ति का किसी अंश में प्रवेश हो पाया है जीवन में? वस्तु का त्याग करने के लिये त्याग नहीं, बल्कि विकल्प का इच्छा का. आसक्ति का या उस वस्त-विशेष के प्रति अन्तरंग झकाव का. उसमें वर्तने वाली मिठास का या रुचि का त्याग करने के लिये त्याग है और वही है सच्चा संयम। इसका यह भी अर्थ नहीं कि बाह्य वस्तुओं का त्याग निरर्थक है । शान्ति की रक्षा करने के लिये, जैसा कि इन्द्रिय-संयम में बताया जा चुका है, यथाशक्ति बाह्य विषयों का त्याग कर ही देना चाहिये, भले पहले-पहले वह कुछ अखरता हो। इस प्रयोजन की सिद्धि बिना अभिप्राय बदले नहीं की जा सकती। मन सम्बन्धी संयम के प्रकरण में भी इसी बात पर जोर दिया गया है । इन्द्रिय-संयम व प्राण-संयम दोनों में यह ही प्रमुख है, और गृहस्थ की इस अल्प भूमिका में रहते हुये भी इस अभिप्राय का अन्तरंग से त्याग कर देने से तेरे शरीर को, तेरे कुटुम्ब को या तेरी सम्पत्ति को कोई भी बाधा होनी सम्भव नहीं है। ऐसा करने से तेरे अन्दर में उत्पन्न.होगा एक उत्साह, एक बल, जीवन में एक मोड़, जो धीरे-धीरे तुझे संयमित बनाता हुआ ले जायेगा विकल्प सागर के उस पार, जहाँ शान्ति खड़ी तेरी राह देखती है। २०. विश्व प्रेम अन्तरंग में प्राण-संयम के अर्थ उपरोक्त सच्चा अभिप्राय बनाने के लिये, मझे एक विशेष दृष्टि उत्पन्न करनी होगी जिसके द्वारा देखने पर मेरे हृदय में एक स्वाभाविक मैत्री-भाव प्रकट हो जाय, विश्व के सर्व छोटे-बड़े प्राणियों के प्रति जिसमें होगा केवल प्रेम व भ्रातृत्व का भाव, समस्त विश्व होगा एक कुटुम्ब; जिसके द्वारा देखने पर दिखाई देगा मुझे सर्वत्र अपना ही रूप, अपना ही निवास; एक अद्वैतपना सा दिखाई देगा जहाँ । अहो ! अलोकिक-जनों की अलौकिक बातें, भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा उपरोक्त दृष्टि को सुन्दर चित्रण ज्ञानी जनों ने किया है। श्रमण सन्तों का तो कहना ही क्या, इनका जीवन तो सदा ही साम्यता व मैत्री से भरपूर रहा है, औपनिषदिक काल के ऋषियों का हृदय भी इस अलौकिक भावना से कितना भरपर था इसका पता ईषोपनिषद के प्रथम मंत्र के अध्ययन से लग जाता है। कितना सुन्दर है ईषोपनिषद् का यह प्रथम वाक्य "ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथ मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।" अर्थात् “इस जगती पर जो कुछ भी है वह सब ईश्वर का आवास है । इसलिये यदि जगत के पदार्थों का उपभोग ही करना है तो त्याग भाव से कर, अधिक लालसा मत कर, यह धन किसका है । (किसी का नहीं)।" कितना सुन्दर भाव है कि इस जगत में सभी पदार्थ ईश्वरीय तत्त्व से ओत प्रोत हैं, सभी जीती-जागती ईश्वर की मूर्तियाँ हैं, सभी अपने में पवित्रता को लिये हुये हैं, सभी संरक्षण सहयोग और मैत्री की अधिकारी हैं। यदि अहंकार दृष्टि को छोड़कर सभी प्राणियों को अपने समान ईश्वर का आवास समझे तो विश्व में सहज ही सुख शान्ति का राज्य स्थापित हो जाय। तनिक ध्यान देकर विचार कि तू कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा, कैसे-कैसे रूप तूने धारण किये हैं और कैसे-कैसे रूप तुझे धारण करने हैं? आ, इधर आ, ज्ञान-शिखर पर बैठ और विश्व को निहार । क्या देखता है? दर-दर तक फैली वृक्षों की पंक्तियां, आकाश में उड़ते परवाने और पक्षी, वनों में विचरते सिंह व हाथी और इन बसे हए ग्रामों तथा नगरों में नर-नारी । इनमें कौन बसता है, एक चैतन्य या कुछ और? इस पत्थर की शिला में कौन बसता था पहले, एक चैतन्य या कुछ और? नये घर में चले जाने पर आज क्या तू अपने पुराने घर को अपना कहना छोड़ देता है ? इसी प्रकार यह समस्त विश्व एक चैतन्य का निवास स्थान है, कुछ वर्तमान काल में और कुछ भूतकाल में । विचार तो सही कि तू कौन है ? तू भी तो चैतन्य है। उनमें बसते चैतन्य में और तुझमें क्या अन्तर है ? अत: तू ही तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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