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२६. संयम
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१०. विश्व प्रेम बसता है या बसता था इन सबमें, और इस प्रकार यह सब तेरा ही तो निवास स्थान हुआ। बस तू ही तो वह ईश्वर, वह चैतन्य प्रभु, वह ज्ञान ज्योति, जिसका कि यह समस्त विश्व क्रमश: निवास स्थान रह चुका है, रह रहा है और आगे को रहेगा। क्या अब भी इस जगत के सर्व पदार्थों को ईश्वर का निवास कहने में कोई शंका है तुझे? किसी के प्राणों को बाधा पहुँचाना अपने निवास को बाधा पहुँचाना है, जिसे कोई सहन नहीं कर सकता और इसी अभिप्राय का नाम है प्राण-संयम।
अब इधर आ। देख इस विश्व का दूसरा सुन्दर चित्रण जिसमें विश्व को ईश्वर की सृष्टि बनाकर दिखाया जा रहा है। ओह ! कितना अच्छा है यह? इसे देखकर तो मानो मुझे अपना सारा पिछला इतिहास ही याद आ गया। वह दिन जब कि बाह्य जगत के व्याकुलता-उत्पादक वातावरण से अत्यन्त भयभीत हुआ मैं घुस बैठा था एक ऐसी गुफा में जिसमें प्रकाश आने के लिये कोई भी मार्ग नहीं था। था एक अत्यन्त छोटा सा छिद्र जिसमें से अत्यन्त धीमी सी, एक छोटी सी रेखा बड़ी कठिनाई से प्रवेश पा रही थी । अर्थात् भय के कारण कछुए की भाँति ज्ञान के सब द्वार बन्द करके, मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय का द्वार खुला रखकर, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति आदि रूपों का सृजन करता फिरता था मैं, उस व्याकुलता से बचने के लिये तथा शान्ति पाने के लिये । यहाँ रहते-रहते, भय के कुछ मन्द पड़ जाने पर, इच्छा हुई दूसरा द्वार खोलकर इस जगत की ओर स्पष्ट देखने की, और मैंने सृजन किया लट-केंचुवे आदिक द्वीन्द्रिय शरीरों का। इसी प्रकार भय में धीरे-धीरे कमी होती चली गई, क्रमश: एक-एक द्वार अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये खोलता गया
और सृजन करता गया त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनरहित व मनसहित शरीरों का। अधिक दिन किसी भी शरीर में रहना मेरे मनने कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि नवीनता भाती थी इसे । इसलिये नये-नये शरीरों का सृजन करता, उनमें कुछ दिन रहता, तबियत उकता जाने पर या सन्तुष्ट न होने पर एक-एक को छोड़ता, आज इस मनुष्य के आकार वाले शरीर में बैठा, अपने ज्ञान के सर्व द्वारों से इस विश्व को देख रहा हूँ। कुछ भी तो ऐसा दिखाई नहीं देता, जो या जैसा मैंने सजन न किया हो कभी। यहाँ कछ सष्टि तो है ऐसी जिसका कि मैंने सजन किया था पहले पर जिसे छोड कर चला आया हूँ मैं, और यह कहलाने लगी है जड । कुछ ऐसी है जिसमें मेरी जाति के मेरे ही सगे भाई, चैतन्य प्रभु बैठे इस जगत की रचना को आश्चर्य सहित देख रहे हैं और अनेकों कल्पनायें इसके सम्बन्ध में कर रहे हैं । मैं ही तो हूँ जगत का रचयिता वह ईश्वर? कौन पदार्थ ऐसा है जिसे मैंने नहीं बनाया? यहाँ दीखने वाला पत्थर, खम्भा मेरे द्वारा उस समय बनाया गया था जब मै पृथ्वी रूप शरीर में बैठा था। इस चौकी में प्रयुक्त लकड़ी का सृजन मैंने वनस्पति का शरीर धारण करके किया था ये सब मेरे मृत शरीर ही तो हैं । कितनी बड़ी महिमा है मेरी कि जिसे आज तक आंखें बन्द किये रहने के कारण स्वयं मैं जान न पाया। किसी भी प्राणी का नाश करना अपनी ही सृष्टि का नाश करना है, इसी अभिप्राय को कहते हैं प्राण-संयम।
और भी देख यह तीसरा चित्रण जिसमें सारा जगत एक ब्रह्म दिखाई देता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं? वाह-वाह कितना सुन्दर? सो तो मैं ही हूँ | जितने भी विभिन्न जाति के शरीर हैं वे सब मेरे द्वारा सृजन किये जाने के कारण तथा मेरे निवास-स्थान रहने के कारण मेरे ही तो हैं । वे सब मैं ही तो हूँ, भूत-रूप से या वर्तमान-रूप से । इन सब में वही तो भावनायें उठ रही हैं जो मुझमें, इन सबकी वही तो इच्छायें हैं जो मेरी, ये सब उसी के लिये तो उद्यम कर रहे हैं जिसके लिये कि मैं ? छोटा हो कि बड़ा, कीड़ा हो कि हाथी, वनस्पति हो कि मनुष्य, सबमें शान्ति की इच्छा, आहार मैथुन व परिग्रह की आकांक्षा, भय खाकर रक्षा करने की भावना, क्या एक सी नहीं हैं? फिर इनमें और मुझमें क्या अन्तर है? यह सब मानो मेरे अन्तष्करण का ही तो प्रतिबिम्ब है, प्रतिबिम्बित हो रहा हूँ मैं ही तो इन सब में, इसके अतिरिक्त और दीखता भी क्या है यहाँ ? जिसे अपनी या अपनी भावनाओं की खबर नहीं, ऐसे विकारी दृष्टि वाले को ही सम्भवत: इन सबमें और अपने में कुछ अन्तर दिखाई दे । अत: वह भेदभाव, वह द्वैतभाव भ्रम है। और ये जड़ पदार्थ? ये भी तो मेरे ही शरीर होने के कारण, मैं ही हूँ। कौन सा पदार्थ ऐसा है जो मुझे इस समय 'मैं' रूप दिखाई नहीं देता? मनुष्य भी 'मैं' रूप, पशु-पक्षी भी 'मैं' रूप, पृथ्वी आदि भी 'मैं' रूप । मेरा ही नाम तो है 'ब्रह्म', क्योंकि मैं आत्मा हूँ, पूर्ण चैतन्य प्रभु हूँ । सर्वत्र मैं ही मैं, आत्मा ही आत्मा, ब्रह्म ही ब्रह्म, और कुछ नहीं । अहा हा ! कितना सुन्दर
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