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२६. संयम
११. तात्त्विक समन्वय
है रूप मेरा, सब मैं ही मैं और कुछ नहीं, 'एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति । सर्व खल्विदं ब्रह्म । ' तत्त्वमसि, एक ब्रह्म ही ब्रह्म है दूसरा कुछ नहीं, यह ब्रह्म निश्चय से एक ही है, और वह तू ही तो है। कितनी सुन्दर बात हैं, साम्यता का उच्चतम आदर्श। किसी भी प्राणी को पीड़ा देना ब्रह्म को पीड़ा देना है। यही अभिप्राय है प्राण-संयम का ।
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और भी देख यह चौथा चित्रण, जिसमें सर्व विश्व एक कुटुम्ब दर्शाया गया है। मैं चैतन्य तथा यत्र-तत्र जहाँ देखूं चैतन्य, जिसे देखूं चैतन्य, मेरी जाति का, मेरी बिरादरी का, मेरी समाज का ही कोई भाई चैतन्य । ज्ञान के नाते, स्वरूप के नाते, इच्छाओं के नाते, सब हैं मेरे ही सहोदर भाई, सब एक चैतन्य की सन्तान अर्थात् एक चैतन्य-भाव के चित्र-विचित्र रूप | और ये सब जड़ ? उस ही चैतन्य के शरीर, उस ही के निवास। छोटे-बड़े रूप में चैतन्य मेरे भाई ही तो हैं, मेरे जैसे ही तो हैं ? अतः यह सर्व विश्व है एक कुटुम्ब, सब की प्रसन्नता है मेरी प्रसन्नता, और सब की पीड़ा है। मेरी पीड़ा। यह अभिप्राय ही है प्राण-संयम |
११. तात्त्विक समन्वय—– इन उपरोक्त चारों चित्रणों का सैद्धान्तिक अर्थ भी यहाँ बता देना योग्य है । जीव, अजीव, आस्रव व बन्ध तत्त्वों का निरूपण किया जा चुका है, जिसमें बताया गया था कि जीव तत्त्व अर्थात् यह चैतन्य अपने से पर-तत्त्वस्वरूप शरीर में अथवा उसके नाम-रूपों में ममत्वबुद्धि करके बराबर अन्तरंग में संस्कारों का तथा बाहर में कर्मरूप जड़ पदार्थ का बन्ध करता रहता है, जिसके फलस्वरूप बराबर नये-नये शरीरों का या नाम-रूपों का स्वत: निर्माण होता रहता है। जैसे कर्म करता है वैसे ही शरीर का निर्माण हो जाता है। इसलिये यदि इस चैतन्य को शरीर का निर्माता या सृष्टा कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। इस प्रकार के एक या दो नहीं अनन्तों शरीर या रूप अनादिकाल से आज तक यह बना चुका है। वास्तव में लोक में दिखाई देने वाला कोई रूप या शरीर ऐसा नहीं जो इसने अनन्तों बार बना-बनाकर छोड़ न दिया हो । अतः यदि किसी एक चैतन्य के पूर्व के सर्व जीवनों को दृष्टि में लूं तो ऐसा दिखाई देने लगता है कि सारे ही दृष्ट रूपों का सृष्टा यह रह चुका है, और आज भी जो कुछ यह पसारा दिखाई दे रहा है वह सब इस चैतन्य-तत्त्व द्वारा ही सृजन किया जा रहा है। जीवात्माओं के रूप में यह चैतन्य एक नहीं अनन्तों हैं, अतः प्रति समय होने वाली उन सब की सम्मिलित यह सृष्टि भी अनन्त है । यदि एक चैतन्य- जातीयता रूप से देखा जाय तो वे अनन्त जीवात्मायें एक चैतन्य नाम से ही पुकारे जाने के कारण एक हैं। यह परम चैतन्य ही 'ईश्वर', 'ब्रह्म' या 'पुरुष' है और कर्म व कर्मफलरूप विस्तार 'प्रकृति' है । इस प्रकार पुरुष व प्रकृति मिलकर विश्व के सृष्टा हैं। इन सब ही दृष्ट-रूपों में यह चैतन्य तत्त्वस्वरूप ईश्वर बसता है या पूर्व भवों में बसता था। इस प्रकार ये सब ही ईश्वर के निवास-स्थान हैं। इसे ही विशाल दृष्टि से देखने पर यदि भूत और वर्तमान का विकल्प हटा दिया जाय तो सर्वत्र एक ईश्वर, एक ब्रह्म, एक पुरुष, एक चैतन्य-तत्त्व तथा उसके ही चित्र विचित्र रूपों के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता । इस प्रकार सर्वत्र एक अखण्ड ब्रह्म-तत्त्व के दर्शन होते हैं । अनन्त चेतनों की एक जातीयता के कारण ही इसे एक जीव-तत्त्व की संतति कहा जाता है। इस प्रकार यह सर्व विश्व एक चैतन्य का कुटुम्ब बताया गया है। आध्यात्मिक अर्थ में विशालता होती है, अत: विशाल दृष्टि से देखने पर ही उस अर्थ की सुन्दरता का भान होता है, अन्यथा नहीं ।
इन चारों विख्यात दृष्टियों में कहाँ है वैमनस्य को स्थान, कहाँ है द्वेष को स्थान, कहाँ है घृणा को स्थान, कहाँ है कटुता को स्थान ? जहाँ सर्वत्र मेरा ही निवास है, वहाँ प्रेम के अतिरिक्त और किसी बात को अवकाश कहाँ ? सर्व-सत्त्व में मैत्री, सर्व प्राणियों में प्रेम, सर्व में साम्यता, जहाँ छोटा बड़ा कोई नहीं, कीटाणु व मनुष्य में भेद नहीं । यही तो है वह महान अन्तरंग - अभिप्राय जो प्राण-संयम का मूल है। यह दृष्टि अहिंसा का आदर्श है; 'अहिंसा परमो धर्मः', साम्यता, वीतरागता, प्रेम, शान्ति व सर्वस्व है ।
इस विश्व-प्रेम के भावो में से स्वतः ही निकल आयेगा, वह भाव जिसकी आज राष्ट्रीय दृष्टि से इस विश्व को बड़ी आवश्यकता है, जो अहिंसा या प्राण संयम का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, विशेषत: मानव-समाज में, और वह है अपरिग्रहता, जिसका कुछ संकेत हिंसा के अनेकों अंगों वाले प्रकरण में आ चुका है। इस भाव का विस्तार करने की आज बड़ी आवश्यकता है, जो आगे अधिकार ३३ में किया जाने वाला है ।
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