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२७. अहिंसा
१. कत्र्तव्य विवेक; २. यत्नाचारी अहिंसा; ३. विरोधी हिंसा में अहिंसा; ४. शत्रु कौन; ५. क्रूरजन्तु शत्रु नहीं।
१. कर्त्तव्य-विवेक-शान्ति के बाधक विकल्पों से बचने के लिये प्राण-संयम की बात चलती है अर्थात् दूसरे प्राणियों के प्रति मेरा क्या कर्त्तव्य है और मैं किस रूप में कर्त्तव्य-विहीन बना इस लोक में विचरण कर रहा हूँ, दूसरों की शान्ति की अवहेलना करता स्वयं अशान्त बना हुआ हूँ। मेरी किसी भी प्रवृत्ति के द्वारा किसी भी बड़े या छोटे प्राणी को बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए, ऐसी सावधानी रखना मेरा कर्तव्य है। इसी का नाम है प्राण-संयम । परन्तु कुछ प्रमादवश, कुछ मनोरंजनवश और कुछ परिस्थितिवश मैंने इस कर्त्तव्य की परवाह नहीं की और सदा निरर्गल चलते हुये मुझको केवल एक ही बात की चिन्ता रही कि जिस किस प्रकार भी पाँचों इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति द्वारा मेरा भोगविलास अक्षुण्ण बना रहे, चाहे अन्य जीव या मेरे पड़ोसी मरें या जीयें, रोयें या हँसे । सम्भल भगवन् सम्भल, तेरे जीवन का कोई लक्ष्य है उसे समझ।
दर्शन-खण्ड में चारित्र के अन्तर्गत मन की चंचलता का दिग्दर्शन कराने के लिये पहियों पर दौड़ने वाले मानव के अविश्रान्त जीवन का चित्रण किया गया है। सोच तो सही कि क्या वही है मानव जीवन का सार, क्या वही है तेरा भोग और विलास? जो पुरुषार्थ तू सुख के लिये कर रहा है, उससे उल्टा दुःखी ही हो रहा है, अधिकाधिक जाल में फंसता जा रहा है। अन्य जीवों के सम्बन्ध में अपना कर्तव्य विचारने की तो बात नहीं, तुझे तो अपने कुटुम्ब के प्रति भी अपना कर्त्तव्य सम्भवत: याद नहीं रहा । चिन्ता-सागर में डूबा तू चला जा रहा है किस ओर, , तुझे स्वयं खबर नहीं। सम्भल, सम्भल, तुझे गुरुदेव प्रकाश दे रहे हैं, आँख खोलकर देख । कर्त्तव्यहीन बनकर तो देख लिया, निकली चिन्तायें व व्यग्रतायें। अब कुछ समय को कर्तव्यपरायण भी बनकर देख। यदि अच्छा लगे तो करना नहीं ता छोड़ देना। जबरी नहीं है, करुणापूर्ण प्रेरणा है।
हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार व परिग्रह के १२९६० कुल भंगों के द्वारा जीवों के प्राणों को रोंदता में चला जा रहा हूँ किस ओर, मुझे स्वयं खबर नहीं । अव्वल तो उनकी पीड़ा मेरे उपयोग में नहीं आती और आवे भी तो इतना कहकर सन्तोष पा लेता हूँ कि १. क्यों आये ये प्राणी मेरे मार्ग में? या यह कह कर अपनी निरर्गलता का पोषण कर लेता हूँ कि २. यदि सर्व ही जगत संयमी बन जाये तो जगत का व्यवहार कैसे चले, जगत का व्यवहार चलाना भी तो किसी का कर्तव्य है ही, बस वह कर्त्तव्य पूरा कर रहा हूँ । या यह कहकर सन्तोष कर लेता हूँ कि ३. मैं तो गृहस्थ हूँ, इस सबके बिना मेरा काम नहीं चलेगा। या यह कहकर अपना स्वार्थ पुष्ट कर लेता हूँ कि ४. यह सर्व सृष्टि मेरे भोग के लिये ही तो बनी है। इत्यादि अनेकों घातक अभिप्राय हैं जिनके कारण साक्षात् मेरा अहित हो रहा है और अशान्ति के सागर में डूबा जा रहा हूँ मैं बेखबर।।
(१) भगवन् छोड़ दे इन निर्विवेक विकल्पों को एक क्षण के लिये, किसी दूसरे के लिये नहीं अपनी शान्ति प्राप्ति के लिये । अन्य जीवों में और तुझमें बड़ा अन्तर है । अन्य क्षुद्र जीवों में तो ज्ञान नहीं इसीलिये बेचारे आ जाते हैं मार्ग में, भूख जो सताती है उन्हें ? आहार की खोज में निकल आते हैं इस ओर बेचारे, अन्धे की भाँति । यदि बैठे रहते अपने निश्चित स्थान पर तो तू ही बता कौन देता खाना उन्हें ? जिस प्रकार तुझे खाने की चिन्ता है इसी प्रकार उन्हें भी तो अपने उदर-पोषण की चिन्ता है। वे भी तो तेरे समान ही प्राणी हैं । तुझे ज्ञान मिला है, बुद्धि मिली है, साधन मिले हैं, परन्तु उनको तो ये नहीं मिले हैं। अन्धा मार्ग पर चला जाता है और तू भी उसी मार्ग पर चला जाता है, तो बता बचना किसका कर्त्तव्य है, अन्धे का या तेरा ? उस बेचारे के नेत्र ही नहीं, बचेगा कैसे? बचना तो तेरा ही कर्त्तव्य है, आंखवाला, ज्ञानवाला जो ठहरा तू । तुझे ज्ञान, बुद्धि व साधन इसीलिये तो मिले हैं कि तू अपनी रक्षा करे और दूसरों
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