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२७. अहिंसा
२. यत्नाचारी अहिंसा की भी । इन ज्ञानादि का मिलना तभी तो सार्थक है जब कि उनका उपयुक्त प्रयोग हो, अन्यथा तुझे कौन कहेगा ज्ञानी तथा इस ज्ञान से तेरा हित भी क्या होगा?
(२) कितना अच्छा हो कि सकल जगत के संयमी बनने का तेरा विकल्प पूरा हो जाय । यद्यपि यह बात असम्भव है, क्योंकि वर्तमान में जीवन के लिये अत्यन्त उत्तम समझा जाने वाला एंजीनियरिंग-लाइन का ग्रहण सर्व सम्मत व आकर्षक होते हुये भी, क्या यह सम्भव है कि सब ही एंजीनियर बन जायें? यदि झूठी कल्पना इस प्रकार की बनाकर यह फर्ज भी कर लिया जाय कि सर्व जगत संयमी बन गया, तो इससे अच्छी बात क्या है ? जगत का व्यवहार चलता रहे, इस बात की आवश्यकता ही क्या है तथा तुझे इस जगत व्यवहार को चलाने का ठेकेदार बनाया किसने? सर्व जगत संयमी हो जाय तो न हो इच्छायें, न हो चिन्तायें, न हो दौड़-धूप, न हो द्वेष, न, हो घृणा, न हो युद्ध, न हो एटमबम; किन्तु हो केवल शान्ति का प्रसार इस धरातल पर, मानो यही मोक्ष-स्थान है, बैकुण्ठ है। इससे उत्तम बात क्या हो सकती है? क्या उपरोक्त इन चिन्ताओं आदि का अभाव भी नहीं भाता तुझे? इस तेरे झूठे विलास ने तेरी बुद्धि को ढक दिया है। भो चेतन ! विचार तो सही, तू स्वयं निश्चिन्त होना चाहता है और जगत का निश्चिन्त होना तुझे भाता नहीं। कैसे पायेगा निश्चिन्तता तू स्वयं?
(३) ठीक है तू गृहस्थ है, पूर्णतया इन सर्व १२९६० विकल्पों का त्याग करके तू वर्तमान में न चल सकेगा, क्योंकि इतनी शक्ति ही नहीं तुझमें, परन्तु सुनकर ही घबरा जाना पुरुषार्थी का काम नहीं, यह कायरता है । तू उन वीर गुरुओं की सन्तान है जिन्होंने उस शत्रु को परास्त किया जिससे बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट हार मान गये, जिन्होंने अन्तर्विकल्पों का नाश किया और अत्यन्त निर्मल शान्ति में स्थिरता प्राप्त की । तुझे शक्ति से अधिक करने के लिये नहीं कहा जा रहा है, जितना कहेंगे उतनी शक्ति अब भी तेरे अन्दर अवश्य है। प्राणों के बाधाकारक उपरोक्त १२९६० विकल्पों को पूर्णतया भले त्याग न सके परन्तु इनमें से कुछ विकल्पों को त्यागने में तू अब भी समर्थ है ।
आरम्भी, उद्योगी तथा विरोधी हिंसा में लाग होने वाले जो विकल्प हैं उनको अवश्य तु वर्तमान परिस्थिति में निज-शरीर कुटुम्ब और सम्पत्ति आदि के मोहवश तथा शक्ति की हीनतावश नहीं त्याग सकता, परन्तु निष्प्रयोजन तथा केवल मनोरंजन के अर्थ होने वाली संकल्पी हिंसा के भंगों को तू अवश्य त्याग सकता है, अर्थात् शिकार खेलना अथवा हिंसक जन्तु कुत्ता आदि पालना। इनके त्याग द्वारा परोक्ष (इनडायरेक्ट) रूप में तू अनेकों मूक पशुओं तथा पक्षियों के प्राणों को पीड़ा पहुँचाने से अपने को रोक सकता है । क्या ऐसा करने से तेरे शरीर को या गृहस्थी को कोई भी बाधा होनी सम्भव है?
२. यत्नाचारी अहिंसा-शान्ति का खोजी बनकर निकला है तो दूसरों के सुख व शान्ति की चिंताओं पर अपनी शान्ति का प्रासाद बनाने का प्रयत्न मत कर । कितने दिन टिका रहेगा वह प्रासाद? इस प्रासाद में तू निर्भय न रह सकेगा। अत: उन सब १२९६० विकल्पों में से संकल्प द्वारा बिना प्रयोजन वाले पूर्वोक्त ३२४ विकल्पों का त्याग कर ही देना चाहिये। शेष रही उद्योगी, आरम्भी व विरोधी हिंसा, सो उनमें भी तुझे निरर्गलता का त्याग करके अपने को संयमी बनाना चाहिये । उद्योगादिक की आवश्यक क्रियाओं में होने वाली हिंसा से गृहस्थ में रहते हुये तू सर्वत: नहीं बच सकता, परन्तु उन क्रियाओं में भी यत्नाचार व विवेक रखकर तू बहुत अधिक हिंसा से बच सकता है । अन्नादि का शोधन करके उनमे से निकली जीव-राशि को यदि मार्ग में न डालकर किसी कोने में डाले तो तूने उनकी शान्ति का सत्कार अवश्य किया, और इतने अंश में तू संयमी अवश्य हुआ। जलादि से वनस्पति पर्यन्त जीवों की पूर्ण रक्षा तू भले न कर सके, परन्तु केवल आवश्यकतानुसार उनका प्रयोग करने से क्या प्रमादवश होने वाले उनके अनावश्यक व्यय से भी तू नहीं बच सकता? जितने कम से कम पानी में काम चले उससे चला, नल को खाली खुला न छोड़। रोज की आवश्यकता के अनुसार ही वनस्पति घर में ला, फालतू नहीं । धड़ियों वनस्पति न सुखा । पंखे को फालतू चलता हुआ न छोड़। अग्नि को या बल्ब को आवश्यकतानुसार ही जला फालतू नहीं। यदि ऐसा यत्नाचार वर्ते तो बड़े अंश में तू इन स्थावर व जंगम जीवों की हिंसा से बच सकता है। यह तो बाह्य-स्थूलकायिक हिंसा से बचने की बात है, इससे भी ऊपर बात है, उस अहिंसा की जो असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन चारों पापों का यथाशक्ति त्याग करने
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