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________________ २६. संयम १६९ ५. इन्द्रिय-संयम तथा सम्पर्क में आने वाले साधारण व असाधारण व्यक्तियों से योग्य संभाषण करना। अनावश्यक भाग में आता है उस किये गये भोजन के स्वाद में या अन्य स्वादिष्ट मिष्टान या चाट आदिक पदार्थों में आसक्ति का होना, और निष्कारण द्वेष या प्रमादवश किसी की निन्दा या चुगली करना, गाली या व्यंग के वचन कहना, अपनी प्रशंसा करना इत्यादि। स्पर्शनेन्द्रियवत् यहाँ भी यद्यपि आवश्यक संभाषण व भोजन-ग्रहण की क्रियाओं का वर्तमान में त्याग करना शक्ति के बाहर की बात होने के कारण भले उसका त्याग न हो सके परन्तु उपरोक्त अनावश्यक भाग का त्याग करने से गहस्थ जीवन की दैनिक चर्या में कोई बाधा नहीं आती। फिर भी इसके त्याग के प्रति क्यों उत्साह नहीं करता? तनिक विचार करके देखे तो पता चले बिना न रहेगा कि इस प्रकार की आसक्ति के कारण तुझे समय-समय प्रति कितनी जाति के संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो-होकर व्याकुल बना रहे हैं । अनुकूल स्वाद न मिलने पर क्रोध के कारण तू किस प्रकार स्वयं अपने स्वरूप को साक्षात् जलता हुआ अनुभव करता है, एक ही वस्तु में अनेक स्वाद उत्पन्न करने के लिये तुझे कितना कुछ करना पड़ता है तथा इसके कारण तेरे दैनिक बजट पर कितना भार पड़ा हुआ है, जिसकी पूर्ति कि तू अपना सारा समय धनोपार्जन के अर्थ लगा देने पर भी कर नहीं पाता । क्या कभी विचारा है कि आज के तेरे जीवन को भार बना देने वाली यह स्वाद की आसक्तिपूर्ण भावना तेरी शान्ति को कितनी बाधा पहुँचा रही है ? इसके त्याग से तेरे शरीर को या गृहस्थी को बाधा पहुँचाने का तो प्रश्न नहीं, विपरीत इसके तुझे बड़ा लाभ होगा, आर्थिक दृष्टि से और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी । आर्थिक दृष्टि से इसके त्याग के कारण अवश्य ही तेरे दैनिक खर्च में बहुत बड़ी कमी आ जायेगी । सम्भवत: क्षुधा निवृत्ति के लिये होने वाला तेरा खर्च स्वादार्थ होने वाले खर्च का तीसरा भाग भी न हो। इसके फलस्वरूप उसकी पूर्ति की जो चिन्ता आज तुझे लगी रहती है उससे तुझे मुक्ति मिलेगी, और धनोपार्जन से कुछ समय का अवकाश पाकर तू शान्ति की उपासना कर सकेगा। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस स्वाद की भावना से दबाया गया तू अनेकों बार जानते-बूझते किन्हीं ऐसे पदार्थों का सेवन कर लेता है, जिनके कारण अनेकों रोग या कष्ट तेरे शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। उनसे रक्षा करने के लिये भी इस पर काबू पाना श्रेयस्कर है। इसके अतिरिक्त निन्दनीय सम्भाषण व पर-निन्दा में तेरा कितना समय व्यर्थ चला जा रहा है, क्या कभी विचार किया है इस पर? इस क्रिया से तझ को कौन सा लौकिक व अलौकिक लाभ है? लौकिक अपेक्षा से भी हानि और अलौकिक अपेक्षा से भी । लौकिक अपेक्षा से इसलिये कि इसके कारण ही अनेक व्यक्ति तेरे शत्रु बन बैठते हैं और तुझे बाधा पहुँचाने में कदाचित सफल भी हो जाते हैं। अलौकिक हानि इसलिये कि इसके कारण से प्रोत्साहित तेरा अन्तद्वेष स्वयं तेरे अन्दर दाह उत्पन्न करके तेरी शान्ति को जला डालता है । अत: इस वर्तमान गृहस्थ-दशा में रहते हुये भी तू स्वाद के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग करने के लिये, बाजार की मिठाई चाट आदि का त्याग करके या घर पर भी स्वादिष्ट वस्तुयें बनवाने का यथासम्भव त्याग करके, अथवा किसी के साथ अयोग्य अश्लील व निन्दनीय सम्भाषण का त्याग करके, एक देश रूप से जिह्वा-इन्द्रिय सम्बन्धी संयम धारण कर सकता है । यहाँ भी स्पर्शन-इन्द्रिय संयम की भाँति अन्तरंग अभिप्राय की प्रधानता जानना । इससे अवश्य ही तुझ को शान्ति की आंशिक प्राप्ति होती प्रतीत होगी, जीवन हल्का हो जायेगा, चित्त में सात्त्विक विचार उदित होंगे और अन्तर्प्रकाश में वृद्धि होगी। (३) अब लीजिये तीसरी नासिका-इन्द्रिय सम्बन्धी संयम की बात। इसके विषय को भी आवश्यक व अनावश्यक अंगों में विभाजित करने पर श्वास लेने की प्रवृत्ति रूप एक आवश्यक अंग तथा सुगन्धि दुर्गन्धि के प्रति राग व घृणा-भाव रूप अनावश्यक अंग ये दो बातें विचारणीय हो जाती हैं । श्वास लेना भले न त्यागा जा सके परन्तु दूसरा विषय त्याग देने पर शरीर को या गृहस्थी को कोई क्षति नहीं होती। वास्तव में देखा जाय तो दुर्गन्धि सुगन्धि नाम की दो सत्तायें ही कहीं नहीं हैं। प्रत्येक भौतिक पदार्थ में कोई न कोई गन्ध तो अवश्य है, पर वह सुगन्धि है या दुर्गन्धि इस बात का निर्णय कौन करे? जो तुझे अच्छी लगे सो सुगन्धि, जो न रुचे सो दुर्गन्धि । इस प्रकार अपनी रुचि के अनुसार किसी भी गन्ध में 'सु' व 'दु' उपसर्ग लगा देना क्या न्याय-संगत है ? पदार्थ के स्वरूप का निर्णय करने का तुझको यह अधिकार है ही कहाँ ? अत: वास्तव में तुझे किसी भी गन्ध के आने पर 'सु' व 'दु' का अथवा अच्छी व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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