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________________ २६. संयम १६८ ५. इन्द्रिय-संयम भूमिका में इसका त्याग आवश्यक नहीं । इसलिये भले ही वस्त्रादि पहनें, शीतादि-उपचार करूँ, पवन प्रयोग में लाऊँ, परन्तु भी चेतन । सुन्दर, कीमती, सिल्की व ऊनी वस्त्र, जरी के वस्त्र, जेवर तथा अन्य भी इसी प्रकार की कोमल व शरीर को सजाने के अभिप्राय से ग्रहण की गई वस्तुएं, शरीर को मल-मलकर धोने के लिये साबुन व इसे चिकना बनाने के लिये तेल-क्रीम तथा इसी प्रकार के अन्य भी प्रयोग यदि त्याग दिये जाएँ, तो विचार कि तेरी गृहस्थी में इससे क्या बाधा पड़ेगी, या तुझ को किस ऐसी पीड़ा का वेदन होगा जिसको कि तू सह न सकेगा? कुछ भी तो नहीं, ये विषय तो सर्वत: अनावश्यक ही हैं। इनके त्याग से बाधा होनी तो दूर बहुत सी बाधाओं का प्रतिकार हो जायेगा। किस प्रकार सो देखिए । आज से पचास वर्ष पूर्व का अपने पूर्वजों का जीवन हमें याद है, जिनके पास होते थे गरमी-सर्दी से बचने के लिये केवल दो-चार वस्त्र । न ट्रंक थे न सन्दूक, एक जोडा धोया और एक पहन लिया, तीसरे का काम नहीं, या कहीं जाने आने के लिये किसी ने रखा तो एक जोड़ा और बस इतना ही पर्याप्त था। न कोई साबुन जानता था न शरीर पर मलने के लिये तेल, क्रीम । जेवर थे पर ठोस, जब चाहो बेच लो और पूरे दाम बना लो, नुकसान का काम नहीं । फलितार्थ, जीवन हल्का तथा सन्तोषी था, आवश्यकताएँ व चिन्तायें कम, अत: धनोपार्जन के प्रति की लालसा भी कम । निज-हित के लिये अर्थात् धर्मसाधन के लिये या मित्रों में बैठकर कुछ हँसने बोलने तथा मनोरंजन करने के लिये काफी समय था उनके पास। ___आज का जीवन भी हमारे सामने है, जब घर में ट्रंक सन्दूक्रों का ढेर लगा है, एक के ऊपर एक लदे हैं। उनमें से प्रत्येक ठसाठस सती. ऊनी. रेशमी तथा जरी के कीमती वस्त्रों से भरा हआ। शरीर को मल-मलकर धोने के लिये अनेक भाँति के साबुन, इसको चिकना-चुपड़ा बनाने के लिये अनेक जाति के पाउडर, क्रीम, सुखी, तेल और न मालूम क्या-क्या । एक भरी हुई पूरी अलमारी का सामान, परन्तु फिर भी अभी कम है, क्योंकि बाजार में उपलब्ध जो हैं नित्य नए-नए ढंग की नाना प्रकार की वस्तुयें । जेवर हैं परन्तु ऐसे कि जिनमें स्वर्ण का मूल्यात्मक अंश बहुत कम, काँच ही काँच, और कहा जाता है स्वर्ण का जेवर । यदि बेचने जाओ तो सम्भवत: मूल्य का आठवाँ भाग भी न मिल सके। फलितार्थ, जीवन स्वयं एक भार, जिसमें है एक व्याकुलता व कलकलाहट, झुंझलाहट व कलह, असीम आवश्यकतायें, असीम तृष्णायें, 'यह भी चाहिये, यह भी चाहिये' 'और ला और ला' की पुकार से व्यग्र चित्त, चिन्ताओं की दाह, अत: धनोपार्जन की भाग दौड़। निज-हित अर्थात धर्म-साधन के लिये या मित्रों में बैठकर मनोरंजन करने के लिये एक सैकेण्ड का अवकाश नहीं, घर में बीबी बच्चों से हँसने व बोलने का अवकाश नहीं, माता-पिता को सांत्वना देने का अवकाश नहीं, कभी ४ घण्टे सोये तो कभी दो घण्टे और कभी न सोये तो न सही। प्रतिदिन की यात्रा, कभी मोटर में तो कभी रेल में । कहाँ तक बताया जाय, सब ही जानते हैं इस जीवन की कशमकश । क्या यही है जीवन का सार, क्या इसीलिये पाया है यह मनुष्य जन्म? इससे अच्छा तो तिर्यंच ही रहते, आगे पीछे की चिन्ता तो न रहती? ___ आश्चर्य है कि इतना कुछ होने पर भी अपने को सुखी मानूँ और नये-नये विषयों के अधिक-अधिक ग्रहण करने का प्रयत्न करूँ। सम्भल चेतन सम्भल। सौभाग्यवश तझे वह प्रकाश मिल रहा है जिसमें यदि आँखें खोलकर देखें तो इन विषैले सर्पो से जिनको अन्धकार में त चिकने-चिकने सन्दर हार समझता रहा. अवश्य सावर और अपने जीवन में अनावश्यक स्पर्शन-इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों से अवश्य अपनी रक्षा करे । वास्तव में स्पर्शन-इन्द्रिय विषयक सामग्री रक्षा करने की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि अन्तरंग मिठास रूप विशेष-भाव से बचने की है। आज वस्त्र आदि शरीर ढाँपने के लिये नहीं हैं, बल्कि हैं शरीर को सजाने के लिये और इसी प्रकार अन्य वस्तुयें भी। शान्ति की खोज में संलग्न पथिक को, शान्ति में बाधक विकल्पों के निषेधार्थ, जीवन को यथाशक्ति संयमित बनाने की प्रेरणा की जा रही है। संयम के प्रथम अंग इन्द्रिय-संयम के अन्तर्गत स्पर्शन इन्द्रिय संयम की बात हो चुकी है। अब चलती है जिह्वादि शेष इन्द्रियों को संयत करने की बात। (२) स्पर्शन-इन्द्रियवत् रसना-इन्द्रिय के विषयों को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक आवश्यक भाग और दूसरा अनावश्यक भाग। आवश्यक व अनावश्यक की व्याख्या स्पर्शन-इन्द्रिय-सम्बन्धी प्रकरण में की जा चुकी है। आवश्यक भाग में आता है क्षुधा शमनार्थ किये गये भोजन को चबा-चबा कर अन्दर धकेलना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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