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२६. संयम
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५. इन्द्रिय- संयम
जाऊँ, जो मेरे जीवन में अधिक भाररूप हैं, जिसके कारण मुझे अधिक व्याकुलता हो रही है, जिसके कारण मैं अपना विवेक भूल बैठा हूँ, जिसके कारण मैं हित को अहित और अहित को हित मान रहा हूँ, इस प्रकार विकल्पों के एक बड़े समूह को जीत लेने के कारण मैं पूर्ण रूप से न सही, परन्तु आंशिक रूप से अवश्य इन्द्रिय-विजयी बन जाऊँगा ।
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परन्तु यहाँ इतना समझ लेना आवश्यक है कि इन्द्रिय शब्द का तात्पर्य यहाँ शरीर में दीखने वाले ये कुछ नेत्रादि चिन्ह मात्र नहीं हैं, बल्कि है मेरे अन्दर का वह अभिप्राय जिसके कारण कि न मालूम क्यों आप ही आप इन नेत्रादि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थात् जाने गये पदार्थों व विषयों की ओर रुचिपूर्वक मैं झुक जाता हूँ, जिसके कारण कि उन-उन पदार्थों व विषयों का उन-उन इन्द्रियों से ग्रहण करते समय मुझ में स्वतः ही कुछ मिठास वर्तने लगता है, कुछ आनन्द सा आने लगता है, और इस प्रकार का भाव आ जाने पर उनके पुनः-पुनः ग्रहण की इच्छा अन्तरंग में जागृत होने लगती है । अहो ! यह तो बहुत स्वादिष्ट है, ऐसा ही और भी लाकर देना, कुछ ऐसा सा भाव ही वास्तव में यहाँ इन्द्रिय शब्द का वाच्य बनाया जा रहा है। ऊपर कहे जाने वाले अनावश्यक विषयों का ग्रहण तो सर्वत: उन्हीं भावों के आधार पर होता है, परन्तु आवश्यक विषयों के ग्रहण का आधार बहुत अंशों में है सहन-शक्ति की कमी, तथा थोड़े अंशों में है वह उपरोक्त विशेष झुकाव का भाव । इच्छाओं को भड़काने के कारणभूत इस विशेष झुकाव वाले भाव का निषेध ही प्रथम अवस्था में कर्त्तव्य है । क्योंकि उसके त्याग से मेरी शान्ति में बाधक इच्छाओं का एक बड़े अंश में निराकरण हो जाता है, इसलिये क्रमश: संयम धारण के प्रकरण में पहले अनावश्यक विषयों के त्याग का उपदेश दिया गया है । मुझे पद-पद पर अपनी शान्ति की रक्षा का अभिप्राय लेकर चलना है अत: इस शान्ति में जो भी बात अधिक बाधा पहुँचाती प्रतीत हो उसे ही पहले मार्ग से हटा देना आवश्यक है ।
४. अन्तरंग व बाह्य संयम—अन्तरंग अभिप्राय टालने को कहा है न ? बाहर में त्यागने से क्या लाभ? अरे प्रभु ! दया कर अपने ऊपर, तू स्वयं यह प्रश्न करके सन्तोष नहीं पा रहा है, फिर भी आश्चर्य है कि प्रश्न किये जा रहा है ? क्या बाहर का ग्रहण बिना अन्तरंग के अभिप्राय के सम्भव है ? क्या बिना अन्तरंग झुकाव के ही इतना व्यग्रचित्त बना अपनी शान्ति का गला घोंट रहा है ? नहीं-नहीं, ऐसा न कह, बाह्य का ग्रहण अन्तरंग अभिप्राय का लक्षण है । यह हो सकना सम्भव है कि बाहर का त्याग हो जाये और अन्तरंग का अभिप्राय न छूटे, पर ऐसा होना असम्भव है कि अन्तरंग का अभिप्राय छूट जाने पर बाह्य विषय न छूटे । अतः अन्तरंग त्याग पर मुख्यता से जोर दिया जा रहा है इसका अभिप्राय बाहर का ग्रहण नहीं है ।
हर क्रिया के मुख्य दो अंग हैं, एक अन्तरंग और दूसरा बाह्य, जैसा कि पहले देव दर्शन व गुरु उपासना में बताया जा चुका है। दोनों अंग अविनाभावी रूप से साथ-साथ चलते हैं । यहाँ भी अन्तरंग क्रिया है उन उन वस्तुओं के प्रति झुकाव का त्याग, और तत्फलस्वरूप बाह्य क्रिया है उन उन अनावश्यक वस्तुओं का त्याग । यद्यपि आवश्यक वस्तुओं वाले भाग में से भी मिठास लेने वाले अन्तरंग भाव का त्याग हो जाता है, परन्तु शक्ति के अभाव के कारण शरीर के रक्षणार्थ बाह्य विषय का त्याग नहीं होता। यह बात कुछ अटपटी सी लग रही होगी, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । शान्ति के उपासक को वीतरागता के प्रति गमन करने में उत्साह वर्तता है, अत: उसे स्वभावतः उन-उन विषयों में से मिठास आना बन्द हो जाता है । वे अब उसे कुछ जंजाल से भासने लग जाते हैं ।
५. इन्द्रिय- संयम इन्द्रिय संयम और प्राण संयम ऐसे द्विविध संयमों में से पहले इन्द्रिय संयम की बात चल रही है । इन्द्रिय पाँच हैं, स्पर्शन, रसना आदि, और इसलिये इनके विषय भी पाँच प्रकार के हैं। पाँचों के अनावश्यक भाग का त्याग ही तेरी भूमिका वालों के लिये इन्द्रिय संयम है। अब इन पाँचों का पृथक्-पृथक् निर्देश प्रारम्भ किया जाता है।
(१) उदाहरण रूप में स्पर्शन - इन्द्रिय को लीजिए। इसके दो विषय हैं - एक गरमी सर्दी का भान करते हुये सुख-दुःखी होना, और दूसरा कोमल-कठोर तथा चिकने रूखे को स्पर्श करके सुखी - दुःखी होना । इस इन्द्रिय सम्बन्धी इन दो विषयों में से पहला विषय इस अल्प गृहस्थ भूमिका के लिये आवश्यक है, क्योंकि गरमी के दिनों में गरमी और सर्दी के दिनों में सर्दी सहन करने को मैं समर्थ नहीं हूं । यद्यपि पूर्ण आदर्श की दृष्टि में वह भी त्याज्य है, तदपि इस
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