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________________ २६. संयम १६६ ३. इन्द्रिय-विषय विभाजन 'प्राणसंयम' इनके कारण मैं स्वयं मनुष्यता को भूलकर अपने साथी अन्य छोटे-बड़े प्राणियों के साथ सम्भवत: पशुओं से भी अधिक नीचा राक्षसी व्यवहार कर रहा हूँ और फिर भी अपने को मनुष्य कहने का गर्व करता हूँ। क्रमपूर्वक इन दोनों अंगों का विस्तार सहित कथन किया जायेगा, धैर्य से सुनना। २. प्रेरणा—गुरुदेव तो पूर्ण हो चुके हैं, इन्द्रिय संयम में भी और प्राण संयम में भी। पाँचों इन्द्रियों को अपनी दासी बना चुके हैं वे । किसी प्राणों को भी किसी प्रकार की बाधा देने के लिये अवकाश नहीं रहा है उनके जीवन में । कषायों पर भी पूर्ण नियन्त्रण कर लिया है उन्होंने। वे हो चुके हैं पूर्ण इन्द्रिय-संयमी, पूर्ण इन्द्रिय-विजयी, पूर्ण कषाय-विजयी, पूर्ण अहिंसक या प्राण संयमी। आज सौभाग्यवश उनकी शरण में आकर भी क्या मैं खाली लौट जाऊँगा, जैसा कि अनादि काल से करता आया हूँ? नहीं, अब तक भूला तो भूला अब वही भूल पुन: न दोहराऊँगा, इस अवसर को अब न खोऊंगा, इस अवसर की महान दुर्लभता को मैं अब जान पाया हूँ । प्रभु ! मुझे शक्ति प्रदान करें कि मैं भी आपके समान संयमी बनकर जीवन शान्त बना सकू, ऐसा ही जैसा कि आपका है। आपकी भाँति ही अभिप्राय में साम्यता को स्थान दे सकू। सुनता हूँ कि जो आपकी शरण में आता है वह आप सरीखा बन जाता है। धनिक का धनिकपना भी किस काम का जो याचक को अपने समान न बना ले? आप आदर्श हैं, क्या मुझ पर दया न करेंगे, क्या मुझको न उभारेंगे? माना कि मैं अपराधी हूँ, परन्तु आप अपराधियों का ही उद्धार करने वाले हैं, निरपराधियों को आपकी आवश्यकता ही क्या? हे अधमोद्धारक! अब सही नहीं जाती व्याकलता की मार, मेरी रक्षा कीजिये। परन्तु भो चेतन ! क्या इस प्रकार की अनुनय, विनय, प्रार्थना, स्तुति तथा याचना मात्र से काम चल जायेगा? प्रभु ने तो दया कर दी, अपने जीवन के आदर्श के आधार पर तुझे तेरा जीवनादर्श दर्शा दिया। अब जीवन को उद्यमपूर्वक वैसे सांचे में ढालना तेरा काम है । यह काम तो प्रभु न करेंगे। अत: अत्यन्त हितकारी इस संयम को अब शीघ्रातिशीघ्र जीवन में उतारने का प्रयत्न कर, साहसी बन, आगे बढ़, कायरता छोड़, बाधाओं से मत घबरा । वीर-प्रभु को आदर्श माना है तो वीर बन । यदि भविष्य में अमक परिस्थिति हो गई 'तो'? यह घातक 'तो' ही वास्तव में तेरे जीवन की कायरता है. इसे त्याग। प्रभ का आश्रय लिया है तो विश्वास कर कि तेरे जीवन में इस 'तो' के लिये अब समय न आयेगा। ___अरे ! यह चिन्ता, यह असमंजस कैसा? हाँ हाँ ठीक है, एकदम वैसा हुआ नहीं जा सकता, क्योंकि शक्ति की हीनतावश और पूर्व-संस्कारवश इतनी बाधाओं का तेरे द्वारा सहा जाना वर्तमान में अशक्य है। परन्तु पूर्णतया वैसा बनने के लिये तो वर्तमान में नहीं कहा जा रहा, वैसा बनने का प्रयत्न करने के लिये ही तो कहा है। इस प्रयल में छिपी है इस मार्ग की सरलता व शक्यता । घबराने व डरने की आवश्यकता नहीं। बार-बार रस्सी के गुजरने से पत्थर भी कट जाता है. इसी प्रकार धीरे-धीरे जीवन को इस ओर झुकाने से क्या एक दिन तू आदर्श के अनुरूप न बन जायेग जायेगा? भले समय अधिक लगे इस बात की चिन्ता नहीं, परन्तु कर तो सही । एक बार प्रारम्भ कर, पूर्णता के लक्ष्य से, पूर्णता के अभिप्राय से, धीरे-धीरे आगे चल, अर्थात् शक्ति का संतुलन करता हुआ परन्तु शक्ति को न छिपाता हुआ। क्रमश: थोड़ा-थोड़ा विषयों पर काबू पाने से एक दिन तू भी पूर्ण इन्द्रिय-विजयी हो जायेगा, जिसका उल्लेख आगे उत्तम-संयम नामक ३९ वें अधिकार में किया जाने वाला है। ३. इन्द्रिय-विषय विभाजन-संयम के इन दो भागों में से पहले इन्द्रिय संयम की बात चलती है । इस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ मुझे विश्लेषण द्वारा अपने विषयों को दो भागों में विभाजित करना होगा-एक आवश्यक भाग अर्थात् 'नेसैसेरीज़' और दूसरा अनावश्यक भाग अर्थात् 'लक्सरीज़' । शरीर पर या कुटुम्बादि पर अर्थात् मेरी गृहस्थी पर किसी भी प्रकार की बाधा, तीव्र-रागवश या शक्ति की हीनतावश, आज मझ से सहन न हो सकने के कारण, भले आज आवश्यक विषयों को अर्थात् नेसैसेरीज़ को त्यागने में या उनकी उपेक्षा करने में मैं अपने को समर्थ न पाऊँ, परन्तु अनावश्यक विषयों अर्थात् लक्सरीज़ को त्यागने में मैं आज भी समर्थ हूँ क्योंकि इनके त्याग से मेरे शरीर में या गृहस्थी में कोई बाधा आनी सम्भव नहीं । यदि ऐसा अभिप्राय बन जाये तो अवश्य ही इन्द्रिय-विषयों के उस बड़े भाग से मैं बच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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