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२६. संयम
१. संयम सामान्य; २. प्रेरणा; ३. इन्द्रिय विषय; ४. अन्तरंग व बाह्य संयम; ५. इन्द्रिय संयम; ६. प्राण संयम; ७. पञ्च पाप; ८. हिंसा; ९. संयम का प्रयोजन; १०.विश्व प्रेम; ११. तात्त्विक समन्वय।
१. संयम सामान्य-शान्ति की खोज में आगे बढ़ने वाले पथिक को क्रमश: इसकी प्राप्ति का उपाय बताया जा रहा है । यह उपाय अत्यन्त सरल है जिसे गृहस्थ अवस्था में रहते हुये भी अपनाया जा सकता है । इसके लिये गृहस्थ छोड़कर तुरन्त साधु हो जाने की आवश्यकता नहीं। इसको आंशिक रूप से भी धारण करने वाले को तत्क्षण सहभावी शान्ति का वेदन अवश्य होने लगता है । उस शान्ति के रसास्वादन में इस मार्ग की कठिनाइयाँ वास्तव में कठिनाइयाँ प्रतीत नहीं
ती, जिस प्रकार कि धन के लोभ से प्रकटी धनोपार्जन की रुचि में व्यापार की कठिनाइयाँ वास्तव में कठिनाइयाँ प्रतीत नहीं होती।
गृहस्थ के योग्य पूर्वोक्त छ: अंगों में से तीन अंग, देव-दर्शन, गुरु-उपासना व स्वाध्याय बताये जा चुके । अब चौथे अंग संयम का प्रकरण चलता है । मार्ग के इन पृथक्-पृथक् करके बताये जाने वाले अंगों का यह अर्थ नहीं कि जीवन में भी ये पृथक्-पृथक् पालन किये जावें अर्थात् जब देव-दर्शन हो तब गुरु उपासनादि अन्य अंगों का अभाव हो
और जब संयम पालन करता हो तो देवदर्शनादि का अभाव हो । ये चारों तथा आगे बताये जाने वाले जितने भी अंग हैं वे सब शरीर के हाथ-पाँव आदि अंगोंवत् एक गृहस्थ जीवन में युगपत पालन करने योग्य होते हैं । युगपत होने पर ही उस गृहस्थ-जीवन शान्ति का मार्ग बनता है । पृथक्-पृथक् रहने पर वास्तव में वे मार्ग नहीं रहते और न ही उन्हें जीवन के अंगरूप स्वीकार किया जा सकता है। वे बन्दर की नकल मात्र बनकर रह जायेंगे जिनका कोई मूल्य नहीं। समझे बिना तथा उन अंगों में शान्ति का दर्शन किये बिना सर्व अंग शून्यमात्र हैं, निष्फल हैं । क्योंकि शान्ति पथ की प्राप्ति के लिये अपनाये गये ये सर्व अंग यदि तत्क्षण शान्ति वेदन न करा सके, तो फल के अभाव में इन सर्व अंगों को निष्फल ही तो कहेंगे।
संयम अर्थात् 'सं + यम' । 'स' अर्थात् सम्यक प्रकार, 'यम' अर्थात् यमन करना, नियंत्रण करना, दबाना, सम्यक् प्रकार दबा देना व्याकुलता उत्पादक उन विकल्पों को जो कि विषय-भोगों के दृढ़ संस्कारवश या कर्तव्य-हीनतावश प्रतिक्षण नया-नया रूप धारण करके मेरे अन्तष्करण में प्रवेश पाते या आस्रवते हुए मुझे अ तथा विहल बनाये रहते हैं। शान्ति के उपासक को और चाहिये ही क्या? विकल्पों का पर्णतया अभाव ही तो इष्ट है
और विकल्पों के आस्रवन का निरोध संवर है। अत: संयम संवर का ही एक अंग है। पूर्ण संयम के प्रतीक हैं देव व गुरु, जिनकी भक्ति व उपासना की बात चल चुकी, जिनके दर्शनों से मैंने शान्ति का स्वरूप समझा, उस शान्ति का जो कि संयम की अविनाभावी है। उनसे मुझे संयम धारण करने की शिक्षा मिलती है, इसलिये देव-दर्शन व गुरु-उपासना का फल जीवन को संयमित बनाने में ही निहित है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि उन संयमी गुरुओं द्वारा प्रणीत आगम में बताया गया है । स्वाध्याय से उसी संयम को धारण करने की जिज्ञासा का प्रोत्साहन तथा उसे धारण करने के मार्ग का ज्ञान कराया गया है, उस संयम को जिसको कि स्वयं अपने जीवन में लाकर उन गुरुओं ने यह सिद्ध कर दिया कि इसका पालन अशक्य नहीं है और इसका पालन ही शान्ति है । उन्होंने तभी उपदेश दिया जब कि अपने जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोग करके उसके फल का निर्णय स्वयं कर लिया।
संयम को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—एक वह भाग जिसके द्वारा मैं अपनी इन्द्रिय विषयों सम्बन्धी लोलुपता व आसक्ति का सम्यक् प्रकार दमन कर सकू अर्थात् 'इन्द्रिय-संयम' और दूसरा वह जिसके द्वारा इस जीवन में अपनी शान्ति की रक्षा करने के साथ-साथ दूसरे प्राणियों के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ बना रह सकू, अर्थात् उन कुटिल संस्कारों का सम्यक् प्रकार दमन करने में समर्थ हो सकू जो कि मुझे कर्त्तव्यहीन बनाये हुये हैं, अर्थात्
शान्त
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