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________________ १. अध्ययन पद्धति १. कार्य की प्रयोजकता; २. अध्ययन के विघ्न; ३. वक्ता की प्रमाणिकता; ४. विवेचन के दोष; ५. . श्रोता के दोष; ६. महाविघ्न पक्षपात ७. वैज्ञानिक बन; ८. पक्षपात निरसन । चिदानन्दैक रूपाय शिवाय परमात्मने । परमलोकप्रकाशाय नित्यं शुद्धात्मने नमः ॥ “नित्य शुद्ध उस परमात्म तत्त्व को नमस्कार हो, जो परम-लोक का प्रकाशक है, कल्याणस्वरूप है और एक मात्र चिदानन्द ही जिसका लक्षण है ।" स्वदोष - शान्त्या विहिताऽत्मशान्तिः, शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश- भयोपशान्त्यै, शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥ जिन्होंने अपने दोषों को अर्थात् अज्ञान तथा काम क्रोधादिको शान्त करके अपनी आत्मा में शान्ति स्थापित की है, और जो शरणागतों के लिये शान्ति के विधाता हैं वे शान्तिनाथ भगवान् मेरे लिये शरणभूत हों । १. कार्य की प्रयोजकता — अहो ! शांति के आदर्श वीतरागी गुरुओं की महिमा, जिसके कारण आज इस निकृष्ट काल में भी, जब कि चहुं ओर हाय पैसा हाय धन के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता, कहीं-कहीं इस कचरे में दबी यह धर्म की इच्छा दिखाई दे ही जाती है । आप सब धर्म- प्रेमी बन्धुओं में उसका साक्षात्कार हो रहा है। यह सब गुरुओं का ही प्रभाव है। सौभाग्य है हम सभी का, कि हमें वह आज प्राप्त हो रहा है। लोक पर दृष्टि डालकर जब यह अनुमान लगाने जाते हैं, कि ऐसे व्यक्ति जिनको कि गुरुओं का यह प्रसाद प्राप्त हुआ है कितने हैं, तो अपने इस सौभाग्य प्रति कितना बहुमान उत्पन्न होता है अपने अन्दर ? सर्वलोक ही तो इस धर्म की भावना से, या इसके सम्बन्ध में सुनने मात्र की भावना से शुन्य है। आज के लोक को तो यह 'धर्म' शब्द भी कुछ कडुआ सा लगता है। ऐसी अवस्था हमारे अन्दर धर्म के प्रति उल्लास ? सौभाग्य है यह हमारा । परन्तु कुछ निराशा सी होती है यह देखकर, कि धर्म के प्रति की भावना का यह भग्नावशेष क्या काम आ रहा है मेरे ? पड़ा है अन्दर में यों ही बेकार सा । कुछ दिन के पश्चात् विलीन हो जायेगा धीरे-धीरे, और मैं भी जा मिलूंगा उन्हीं की श्रेणी में, जिनको कि इसके नाम से चिड़ है। बेकार वस्तु का पड़ा रहना कुछ अच्छा भी ती नहीं लगता। फिर उसके पड़े रहने से लाभ भी क्या है ? समय बरबाद करने के सिवाय निकलता ही क्या है उसमें से ? उस भावना के दबाव के कारण कुछ न चाहते हुए भी, रुचि न होते हुए भी, जाना पड़ता है मन्दिर में, या पढ़ता हूँ शास्त्र, या कभी चला जाता हूँ किसी ज्ञानी के उपदेश में। मैं स्वयं नहीं जानता कि क्यों ? क्या मिलता है वहां ? कभी-कभी उपवास भी करता हूँ देखादेखी, पर क्षुधा की पीड़ा में रखा ही क्या है ? चलो फिर भी यह सोचकर कि लाभ न सही हानि भी तो कुछ नहीं है, अपनी एक मान्यता ही पूरी हो जायेगी, चला जाता हूँ मन्दिर में। बाप दादा से चली आ रही मान्यता की रक्षा करना भी तो मेरा कर्त्तव्य है ही । भले मूर्ति के दर्शन से कुछ मिल न सकता हो, वह मेरी रक्षा न कर सकती हो मुझ पर प्रसन्न होकर, परन्तु कुछ न कुछ पुण्य तो होगा ही । भले समझ न पाऊँ, क्या लिखा है शास्त्र में, पर इसे पढ़ने का कुछ न कुछ फल तो मिलेगा ही आगे जाकर, अगले भव में मुझे । इन पण्डित जी ने या इन क्षुल्लक महाराज ने या इन ब्रह्मचारी जी ने क्या कहा है, भले कुछ न जान पाऊँ, पर कान में कुछ पड़ा ही तो है ? कुछ तो लाभ हुआ ही होगा उसका, और इस प्रकार की अनेक धारणाएँ धर्म के सम्बन्ध में होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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