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२. अध्ययन के विन
१. अध्ययन पद्धति
निष्प्रयोजन उपर्युक्त क्रियायें करके संतुष्ट हो जानेवाले भी चेतन ! क्या कभी विचार किया है इस बात पर, कि तू क्या कर रहा है, यहाँ क्यों कर रहा है, और इसका परिणाम क्या निकलेगा? लोक में कोई भी कार्य बिना प्रयोजन तू करने को तैयार नहीं होता, यहाँ क्यों हो रहा है ? अनेक जाति के व्यापार हैं लोक में, अनेक जाति के उद्योग धन्धे हैं लोक में, परन्तु क्या तू सबकी ओर ध्यान देता है कभी? उसी के प्रति तो ध्यान देता है कि जिससे तेरा प्रयोजन है? अन्य धन्धों में भले अधिक लाभ हो पर वह तेरे किस काम का? किसी भी कार्य को निष्प्रयोजन करने में अपने पुरुषार्थ को खोना मूर्खता है।
आश्चर्य है कि इतना होते हए भी उस भावना के इस भग्नावशेष को कहा जा रहा है तेरा सौभाग्य । ठीक है प्रभ! वह फिर भी तेरा सौभाग्य है । क्योंकि उन व्यक्तियों को तो, जिन्हें कि इसका नाम सुनना भी नहीं रुचता इसके प्रयोजन व इसकी महिमा का भान होना ही असम्भव है ; इसको अपनाकर लाभ उठाने का तो प्रश्न ही क्या? परन्तु इस तुच्छमात्र निष्प्रयोजन भावके कारण तुझे वह अवसर मिलने का तो अवकाश है ही कि जिसे पाकर तू समझ सकेगा इसके प्रयोजन को व इसकी महिमा को । और यदि कदाचित् समझ गया तो, कृतकृत्य हो जायेगा तू, स्वयं प्रभु बन जायेगा तू । क्या यह कोई छोटी बात है ? महान् है यह । क्योंकि तुझे अवसर प्राप्त हो जाते हैं कभी-कभी ज्ञानी जनों के सम्पर्क में आने के जो बराबर प्रयत्न करते रहते हैं तुझे यह समझाने का कि धर्म का प्रयोजन क्या है और इसकी महिमा कैसी अद्भुत है । यह अवसर उनको तो प्राप्त ही नहीं होता, समझेंगे क्या बेचारे?
अनेक बार आज तक तुझे ऐसे अवसर प्राप्त हो चुके हैं, पूर्व भवों में, और प्राप्त हो रहे हैं आज । बस यही तो तेरा सौभाग्य है, इससे अधिक कुछ नहीं। “अनेक बार सुना है मैंने धर्म का स्वरूप व उसका प्रयोजन व उसकी महिमा । परन्तु सुनकर भी क्या समझ पाया हूँ कुछ ? अत: यह सौभाग्य भी हुआ न हुआ बराबर ही हुआ", ऐसा न विचार । क्योंकि अबतक भले न समझ पाया हो, अबकी बार अवश्य समझ जायेगा, ऐसा निश्चय है। विश्वास कर, आज बही सौभाग्य जाग्रत हो गया है जो पहले सुप्त था।
२. अध्ययन के विघ्न न समझने के कारण कई हैं। वे सब कारण टल जायें तो क्यों न समझेगा? पहला कारण है तेरा अपना प्रमाद, जिसके कारण तू स्वयं करता हुआ भी, अन्दर में उसे कुछ फोकट की व बेकार की वस्तु समझे हुए है, जिसके कारण कि तू इसके समझने में उपयोग नहीं लगाता ; केवल कानों में शब्द पड़ने मात्र को सुनना समझता है, वचनों के द्वारा बोलने मात्र को पढ़ना समझता है और आँख के द्वारा देखने मात्र को दर्शन समझता है । दूसरा कारण है वक्ता की अप्रमाणिकता। तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता । चौथा कारण है विवेचन-क्रम का लम्बा विस्तार जो कि एक दो दिन में नहीं बल्कि महीनों तक बराबर कहते रहने पर ही पूरा होना सम्भव है। और पाँचवा कारण है श्रोता का पक्षपात।
पहिला कारण तो तू स्वयं ही है। जिसके सम्बन्ध में कि ऊपर बता दिया गया है। यदि इस बात को फोकट की न समझकर वास्तव में कुछ हित की समझने लगे, कानों में शब्द पड़ने मात्र से सन्तुष्ट न होकर वक्ता के या उपदेष्टा के या शास्त्रों के उल्लेख के अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करने लगे, तो धर्म की महिमा अवश्य समझ में आ जावे। शब्द सुने जा सकते हैं पर अभिप्राय नहीं। वह वास्तव में रहस्यात्मक होता है, परोक्ष होने के कारण और इसीलिये उन-उन वाचक शब्दों का ठीक वाच्य नहीं बन रहा है। क्योंकि किसी भी शब्द को सुनकर उसका अभिप्राय आप तभी तो समझ सकते हैं, जबकि उस पदार्थ को, जिसकी ओर कि वह शब्द संकेत कर रहा है, आपने कभी छूकर देखा हो, सूंघ कर देखा हो, आँख से देखा हो, अथवा चखकर देखा हो । आज मैं आपके सामने अमरीका में पैदा होने वाले किसी फल का नाम लेने लगं, तो आप क्या समझेंगे उसके सम्बन्ध में? शब्द कानों में पड़ जायेगा और कुछ नहीं। इसी प्रकार धर्म का रहस्य बताने वाले शब्दों को सुनकर क्या समझेंगे आप? जब तक कि पहले उन विषयों को जिनके प्रति कि वे शब्द संकेत कर रहे हैं, कभी छूकर, सूंघकर, देखकर व चखकर न जाना हो आपने । इसीलिये उपदेश में कहे जानेवाले अथवा शास्त्र में लिखे शब्द ठीक-ठीक अपने अर्थका प्रतिपादन करने को वास्तव में असमर्थ हैं । वे केवल संकेतकर सकते हैं किसी विशेष दिशा की ओर । वह बता सकते हैं कि अमुक स्थान पर पड़ा है आपका अभीष्ट । यह
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