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२१. साधना
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४. बाह्य साधना
। जिस प्रकार 'धर्म का प्रयोजन' बताते हुए द्वितीय अधिकार में इच्छा गर्त की भयंकरता दर्शाने के लिये संसार वृक्ष का कलापूर्ण चित्रण प्रस्तुत किया गया है, उसी प्रकार यहाँ साधना के प्रकरण में कषायों की शक्ति दर्शाने के लिये लेश्या वृक्षका यह चित्रण किया गया है। ये दोनों चित्रण जैन आम्नाय में आ बाल गोपाल प्रसिद्ध हैं । यत्र-तत्र पुस्तकों में तथा मन्दिरों में लगे हुए मिलते हैं। इन्हें केवल सजावट के लिये नहीं बनाया गया है। वास्तव में ये दोनों ही चित्र आध्यात्मिक भावनाओं से तथा रहस्यपूर्ण उपदेशों से ओत प्रोत हैं। अपने आन्तरिक भावों का दर्शन करते हुए तीव्र भावों से पीछे हटने में ही इनकी सजावट का सार्थक्य है । इसमें ही कल्याण है।
३.आभ्यन्तर साधना--परन्त आसान नहीं है यह खेल । संघर्ष करना पडेगा परा-परा असत्य लोक की इन सर्व विरोधी शक्तियों के साथ । जूझना पड़ेगा पूरे बल तथा पराक्रम के साथ इन सर्व महाविधों को परास्त करने के लिये। परलोक में सुख-प्राप्ति की भावना निदान' कहलाती है। इसी प्रकार इस लोक में कीर्ति प्रतिष्ठा आदि की चाह 'लोकेषणा' के रूप में प्रसिद्ध है। साधना के क्षेत्र में लोक-दिखावा 'दम्भाचरण' है। तत्त्व-विवेक विहीन 'व्यवहाराभास' तथा 'सिद्धोऽहं शुद्धोऽहं ब्रह्मास्मि, आदि शब्दों का निष्प्राण वाग्विलास 'निश्चयाभास है। इस निश्चयाभास से उत्पन्न अपनी पूर्णकामता का अहंकार तथा अभिमान-पूर्ण 'मिथ्या गर्व', अन्तस्तत्त्व के स्पर्श शून्य 'बाल-तप', 'बाल-त्याग' तथा 'बाल-वैराग्य' इत्यादि जितने कुछ भी धर्म तथा साधना के लिंग से चिन्हित भाव या क्रिया हैं वे सब कषायानुरञ्जित मिथ्या प्रान्तियें हैं, व्यवहाराभासी अथवा निश्चयाभासी दम्भाचार की शाखायें तथा उपशाखायें हैं, साधन मार्ग के पत्थर हैं।
___ सबको पढ़ना होगा अपने भीतर, सबको देखना होगा अपने भीतर, सबको ठीक-ठीक प्रकार पहचानना होगा अपने भीतर । खाते, नहाते, चलते, सोते, हर समय जागरुक रहना होगा अपने भीतर । देखते रहना होगा प्रतिक्षण अपने मनको तथा अपनी बुद्धि को कि क्या कुछ विचार रहे हैं ये, क्या कुछ स्वप्न देख रहे हैं ये, क्या कुछ जाल बुन रहे हैं ये। प्रयोग करना होगा सूक्ष्म-प्रज्ञाका, प्रतिक्षणं इन्हें सम्बोध-सम्बोध कर, समझा-समझाकर, ताकि भटकने न पावें ये इन भ्राान्तियों में पडकर । लक्ष्य को समेरुवत स्थिर रखना होगा. दर्शन-खण्ड में कथित तत्त्व के प्रति तथा तद्विषयक विवेक के प्रति । और यही होगी, तुम्हारी आभ्यन्तर साधना।
४. बाह्य साधना-इतना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होगा इस स्व-अध्ययन के अतिरिक्त, अपने मन बुद्धि तथा इन्द्रियों की बहिर्मुखी वृत्तियों का निरोध करके उन्हें अन्तर्मुखी करने के लिए। पुन: बता देना चाहता हूँ कि केवल शास्त्र पढ़ लेने मात्र से अथवा 'सिद्धोऽहं', 'पूर्णोऽहं' आदि राग अलापने मात्र से विशुद्ध नहीं हो जाते ये । विशुद्ध होने की तो बात नहीं, अभिमान परिपुष्ट होते रहने से और भी अधिक अशुद्ध हो जाते हैं ये, और भी अधिक बहिर्मुख हो जाते हैं ये, और भी अधिक प्रान्त हो जाते हैं ये । लोक-प्रशंसा के कारण उदित उल्लास तथा शान्ति को समझ बैठते हैं ये अपनी शान्ति, चहुँ ओर अनुकूलता हो जाने के कारण उदित समता को समझ बैठते हैं ये अपनी समता। परीक्षा करने का अवसर मिले तो पता चले, प्रशंसा की बजाये निन्दा मिले तो पता चले, प्रशंसकों की भीड धीरे-धीरे खिसककर समाप्त हो जाय तो पता चले, अनुकूलता की बजाय प्रतिकूलता मिले तो पता चले कि कितनी शान्ति है इनमें और कितनी समता है इनमें । सम्भवत: अपनी पूर्ववाली भूमि से भी कुछ नीचे गिर गये हैं ये।।
छोड़ इन असत् भ्रान्तियों को और पढ़ अपने हृदय की गहराइयों में जाकर कि कहीं सत्य का स्वांग धरकर कोई असत्य तो नहीं घुस बैठा है तेरे घर में ? लड़ना होगा इन महाविनों के साथ पूरी तरह और आज ही से प्रारम्भ करना होगा तुझे यह युद्ध । भले ही नवजात होनेके कारण अधिक शक्ति न हो आज तुझमें, जितनी कुछ भी प्राप्त है गुरु-कृपा से तुझे उसे ही लेकर प्रारम्भ कर दे युद्ध आज से ही, शक्तिहीन इस गृहस्थ दशा से ही। भले न कर सके मुँह-दर-मुँह सामना, छिप-छिपकर वार करता रह इनपर, शिवाजी की भाँति । इस प्रकार क्षीण होती जायेगी इनकी शक्ति और बढ़ती जायेगी तेरी शक्ति । एक दिन गृहस्थ से योगी बन जायेगा तू, अति सुभट, और उस समय कर दीजियो साक्षात्
की घोषणा। भाग खडी होगी यह असत्य-सेना सत्य का रुद्ररूप देखकर उस समय, और अमर हो जाएगा त पाकर अपनी अमरावती, जहाँ तेरी प्रतीक्षा में बैठी है शान्ति-रानी।
__ इस प्रकार एक ही साधक शक्ति की तरतमता के कारण अनेक कोटियों में विभाजित हो जाता है, जिनका समावेश हम तीन प्रधान श्रेणियों में कर सकते हैं-गृहस्थ, श्रावक तथा साधु । 'गृहस्थ' साधक तो कहलाता है वह जो कि
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