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________________ २१. साधना गुरु कृपा से तात्त्विक विवेक जागृत हो जाने पर भी संस्कारों की प्रबलता के कारण अभी घर-गृहस्थी के काम-धन्धों से विरक्त नहीं हो पाया है, परन्तु अपने लक्ष्य की प्राप्ति के अर्थ अपनी शक्ति अनुसार इस दिशा-सम्बन्धी कुछ क्रियायें करने लग गया है । 'श्रावक' कहते हैं उस सद्गृहस्थ को जिसके चित्त में अपने इस पुरुषार्थ के फलस्वरूप कुछ-कुछ विरक्ति जागृत होनी प्रारम्भ हो गई है, परन्तु संस्कार की प्रबलता के कारण अभी पूर्ण विरक्त होकर सन्यास धारण करने १२५ ५. समन्वय योग्य नहीं हो पाया है। तथापि अपनी इस विरक्ति को वृद्धिगत करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार कुछ व्रत या प्रतिज्ञायें उसने अवश्य धारण कर ली हैं। 'साधु कहते हैं उस सन्यासी को जिसका चित्त अपने इस पुरुषार्थ के फलस्वरूप पूर्ण विरक्त हो चुका है और इस कारण घरबार को सर्वथा छोड़कर या तो वन में रहता है या किसी मन्दिर आदि में । अत्यन्त परिवृद्ध शक्ति वाला हो जाने के कारण यह विविध प्रकार के क्लिष्ट तपश्चरण करने के लिए भी समर्थ है। शक्ति की तरतमता के कारण तीनों प्रकार के साधकों की क्रियाओं में भेद होना स्वाभाविक है । आस्रव-तत्त्वरूप संवरण करने में सहायक होने के कारण ये सकल क्रियायें संवर-तत्त्व में अन्तर्भूत हैं । शुभ गृहस्थ के योग्य क्रियाओं में ६ प्रधान हैं— देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप व दान । दया भी दान में गर्भित है | श्रावक के योग्य क्रियाओं में इन छः के अतिरिक्त सम्मिलित हैं अणुव्रत, देशव्रत तथा सामायिक । साधु के योग्य क्रियाओं में ९ प्रधान हैं— महाव्रत, गुप्ति, समिति, दशधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप और ध्यान । 'तप' के अतिरिक्त यह सकल साधना वास्तव में संवर-तत्त्व का विस्तार है और 'तप' निर्जरा-तत्त्व के अन्तर्गत है । इन सबका कथन किया जायेगा आगे धीरे-धीरे, परन्तु इतना समझ लेना आवश्यक है यहाँ कि बड़ी सावधानी के साथ चलना है। साधक प्रायः लोक-रञ्जना के, ख्याति-लाभ-पूजा की चाह के अथवा लोकेषणा के शिकार हो जाया करते हैं। यहाँ आकर। और ऐसा हो जाने पर बड़े से बड़ा पुरुषार्थ करते हुए भी, महान् से महान् तप करते हुए भी, बड़े-बड़े कष्ट झेलते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं कर पाते वे । परिश्रम तथा कष्ट के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं आता उनके । कुछ हाथ आने की तो बात नहीं सम्भवत: पहली पूँजी भी गवां बैठते हैं वे । मिथ्या प्रशंसाओं के द्वारा उदित तपाभिमान के कारण पतन हो जाता है उनका, ज्योतिर्लोक की बजाय तमोलोक में प्रवेश कर जाते हैं वे । ५. समन्वय - एक समस्या है यह बड़ी जटिल । दर्शन- शास्त्र के अनुसार अपने को सिद्ध तथा पूर्ण मानकर बाह्याचार को जलाञ्जलि दे दें तो भी तमोलोक और आचार - शास्त्र के अनुसार ये सब क्रियायें करने में निमग्न हो जायें तो भी तमोलोक । ज्योतिर्लोक की प्राप्ति हो तो कैसे हो ? भैया ! वास्तव में देखा जाय तो न वह गलत है और न यह गलत । गलत तो है वास्तव में वह अज्ञान, वह अविवेक, वह अविद्या जिसके कारण कि इन दोनों की सूक्ष्म सन्धि में निहित रहस्य को देख नहीं पाते ये दोनों ही। दोनों ही ईमानदार हैं अपने प्रति, दोनों ही का लक्ष्य है शान्ति के प्रति, दोनों पुरुषार्थ कर रहे हैं अति प्रबल, पहलेवाले कर रहे हैं बौद्धिक पुरुषार्थ और दूसरे वाले कर रहे हैं शारीरिक पुरुषार्थ । किसी के भी पुरुषार्थ में कमी नहीं परन्तु न जाने क्या रहस्य है वह जिसके कारण सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं कर पाते वे । नियति के अतिरिक्त और क्या कहें इसे ? परन्तु मत घबरा भो पुरुषार्थी ! मत घबरा, निराश मत हो, गुरुदेव की शरण को मत छोड़ कसकर पकड़ अंगुली । सब कुछ सुलझा देंगे वे स्वयं और बता देंगे वह सूक्ष्म रहस्य भी तुझे । जिस प्रकार किसी चूर्ण के स्वाद में नमक, जीरा, सौंठ आदि अनेक मसालों के स्वाद युगपत् पड़े रहते हैं, जो सबके सब युगपत् एक विजातीय स्वाद के रूप में अनुभव करने में आते हैं, इसी प्रकार इन सर्व क्रियाओं में भी दो अंश रहते हैं— एक बाह्यांश और एक अभ्यन्तर अंश । इन दोनों अंशों का परस्पर मिश्रित कोई विजातीय स्वाद ही साधक के अनुभव में आता है । बाह्यांश तो इन्द्रिय- गम्य होने के कारण जगत के दृष्टिपथ में आ जाता है परन्तु अभ्यन्तर अंश इन्द्रिय-- ग्राह्य न होने के कारण जगत को दिखाई नहीं देता । उसे या तो जानता है साधक स्वयं या जानते हैं गुरुदेव । ख्याति व प्रशंसा आदि का आधार वास्तव में बाह्यांश है, अभ्यन्तर अंश नहीं। जिस प्रकार कोई सर्राफ खोटे स्वर्ण के जेवर में, उसका शोधन किये बिना ही यह पहचान लेता है कि इसमें इतना अंश तो सोने का है और इतना अंश खोट का, उसी प्रकार ज्ञानी-साधक बराबर इन क्रियाओं के विजातीय स्वाद का विश्लेषण करके यह जानता रहता है कि इनमें इतना अंश तो बाह्य है और इतना अंश अभ्यन्तर । जिस प्रकार ताम्बा अथवा चान्दी रूप खोट का व्यवहारिक क्षेत्र में कुछ न कुछ मूल्य होते हुए भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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