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२१. साधना
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५. समन्वय
सर्राफ के लिये वह बिल्कुल बेकार है, इसी प्रकार इन क्रियाओं के बाह्यांश का प्रशंसा आदि के व्यवहारिक क्षेत्र में कुछ न कुछ मूल्य होते हुए भी साधक के लिये वह बिल्कुल बेकार है। जिस प्रकार जेवर में खोट मिलवाने की इच्छा न होते हुए भी ग्राहक को टाँके आदि में प्रयुक्त खोट को स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि बिना उसके ज़ेवर बनना सम्भव नहीं; इसी प्रकार बाह्य क्रिया की इच्छा न होते हुए भी ज्ञानी -साधक को उसे स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि उसका आलम्बन लिये बिना अन्तरंग की क्रिया सम्भव नहीं। जिस प्रकार जेवर को गले में पहनते हुए भी ग्राहक की दृष्टि में उसका खोट बराबर खटकता रहता है, उसी प्रकार इन सकल क्रियाओं को करते हुए भी साधक की दृष्टि में उनका बाह्यांश बराबर खटकता रहता है। कारण यह कि उन क्रियाओं में रहने वाला अभ्यन्तर अंश ही वास्तव में अमृत है, बाह्यांश नहीं। इसके विपरीत वह तो स्वयं आस्रव-तत्त्वरूप होने के कारण विष है ।
इसलिये उसका प्रयत्न बराबर यही रहता है कि जिस किस प्रकार भी इस बाह्यांश का आलम्बन छूटे और अभ्यन्तरअंश में अधिकाधिक वृद्धि होती जाय । यही कारण है कि ज्यों-ज्यों वह आगे चलता है त्यों-त्यों बाहर से हटकर भीतर में जाता रहता है, बाह्यांश कम होता जाता है और अभ्यन्तर अंश बढ़ता जाता है। एक दिन अभ्यन्तर अंश पूर्ण हो जाता है और बाह्यांश का आलम्बन सर्वथा छूट जाता है। फिर उसे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं रह जाती । करे या न करे । विधि-निषेध से अतीत हो जाता है वह, संवर तथा निर्जरा तत्त्व का उल्लंघन करके मोक्ष तत्व में प्रवेश पा जाता है वह, जीवन्मुक्त हो जाता है वह, और यही है, उसकी पूर्णता जिसे प्राप्त कर लेने के उपरान्त ही उसको अधिकार प्राप्त होता है 'सिद्धोऽहं, पूर्णोऽहं ब्रह्मास्मि' आदि कहने का । बस यही है वह रहस्य जिसे न जानने के कारण कोई रह जाता है लोकरञ्जना में, कोई ख्याति, प्रशंसा, प्रतिष्ठा में और कोई पूर्णता के मिथ्या अभिमान में । अतः भाई ! यदि तू ईमानदार है अपनी साधना के प्रति तो तेरा सर्वप्रथम कर्त्तव्य यह है कि इन दोनों अंशों की यथोक्त मैत्री को साथ लेकर चल । अपनी ओर से कोई खेंचतान न कर । तभी कहलायेगी वह सत्य साधना ।
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गुरुदेशना को प्राप्त शिष्य साधना द्वारा समस्त विघ्नों को परास्त कर, अपने भीतर अपना स्वरूप देखकर आश्चर्यचकित रह गया।
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