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२२. गृहस्थ-धर्म
१. सामान्य परिचय |
यातायात इस साधन-सम्पन्न युग में साधुओं तपस्वियों तथा त्यागियों के दर्शन सुलभ तथा बहुल हो जाने के कारण, और साथ-साथ उनके त्याग-प्रधान उपदेश सुनते रहने के कारण जन-साधारण में आज एक ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है कि गृह-त्याग अथवा भोजन, वस्त्र आदि का अधिकाधिक त्याग किये बिना शान्ति पथ की साधना की जानी सम्भव नहीं है । भक्तजनों से प्राप्त साधुओं तथा त्यागियों की पूजा, प्रतिष्ठा, ख्याति, व प्रसिद्धि देखकर पूर्व - संस्कारों की वासना से मन में जो लोकेषणा जागृत होती है, वह इस भ्रान्ति को बल प्रदान करती है, और भोले-भाले व्यक्ति इस जाल में उलझकर अपने जीवन को नष्ट कर डालते हैं । अमृत भी उनके लिये विष बन जाता है । अत: सत्य-साधक को प्रथम-पग में ही सावधान होकर चलना है, बाह्य के इस असत्य - प्रसार को देखकर इसकी रौमें नहीं बह जाना है। बाहर में छोड़ने मात्र से किसी वस्तु का त्याग नहीं हो जाता। साधना बाहर से भीतर को न जाकर भीतर से बाहर को आती है । बाहर में साधु अथवा त्यागी- जैसा वेष बना लेने से अथवा अनुचित त्याग आदि के द्वारा देह शोषण करने से शान्ति की सिद्धि नहीं होती, विपरीत इसके कृत्रिम तथा भावनाशून्य होने के कारण इस प्रकार का वेष तथा त्याग जीवन का भार बन बैठता है, प्रशंसा सुनने की भावना उसे अपने प्रशंसकों का दास बना देती है, और अपने निन्दकों के प्रति उसका मन शंका, भय, द्वेष तथा घृणा से भर जाता है, प्रशम आदि पूर्वोक्त गुण किनारा कर जाते हैं, हृदय की सरसता नष्ट हो जाती है और उसके स्थान पर क्रोध व अभिमान आकर डेरा जमा लेते हैं ।
साधना का अर्थ है अभ्यास और अभ्यास एकदम न होकर धीरे-धीरे हुआ करता है। इस प्रसंग में तीन बातों का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है— प्रकृति, शक्ति तथा स्थिति । सर्वप्रथम व्यक्ति को अपनी प्रकृति या स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहिये और तत्पश्चात् अपने बलाबल तथा परिस्थिति को देखते हुए यथोचित त्याग आदि करना चाहिये । न अपनी शक्ति को छिपाना चाहिये और न उससे अधिक करना चाहिये। जैसे वातावरण में रहता हो तथा जैसी परिस्थितियों में से उसका जीवन गुजर रहा हो उसका भली भाँति सन्तुलन करके चलना चाहिये। इन बातों का अतिक्रमण करने से वह ऊपर उठने की बजाय नीचे गिर जाता है। सद्भावना से शून्य होने के कारण तथा ख्याति आदि अन्यान्य असत् अभिप्रायों से उत्तेजित होने के कारण इस प्रकार का सकल प्रयास उसे सन्मार्ग से दूर किसी ऐसे अन्धकूप 'में धकेल देता है जहाँ से निकलने के लिये उसे असंख्यकाल प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अच्छाई के लिये किया गया घोर परिश्रम उसकी बुराई का हेतु बन जाता है।
प्रथम-पग में ही साधक को अपने हृदय-राज्य में सद्भावना, संवेग, निर्वेद तथा वैराग्य जागृत करके उसे धीरे-धीरे पुष्ट करने का अभ्यास करना चाहिए, जिसके हो जाने पर त्याग आदि किया नहीं जाता प्रत्युत स्वतः हो जाता है, क्योंकि तब उसकी प्रकृति बदल जाती है, उसकी रुचि बदल जाती है। वे पदार्थ अब उसको अच्छे ही नहीं लगते, विपरीत इसके वे उसे कुछ भार सरीखे दीखने लगते हैं। साधक की सर्वप्रथम भूमि गृहस्थ है और उसकी शक्ति अति-अल्प है । इसमें रहते हुए ही उसे भावना वृद्धि का और इसके द्वारा शक्ति- वृद्धि का अभ्यास प्रारम्भ करना है । लोक- दिखावे से दूर रहना है, इसलिए जो कुछ भी करना है गुप्त रहकर करना है, केवल अपने भीतर तथा अपने लिए करना है । और यही है एक गृहस्थ के योग्य संवर-तत्त्व |
अपनी-अपनी प्रकृति, शक्ति व स्थिति के अनुसार अनेक प्रकार से प्रारम्भ किया जा सकता है यह अभ्यास, तथापि अनुभवी पुरुषों ने इस विषय में छ: बातें बताई हैं - देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप व दान । इन छहों में प्रथम तीन अर्थात् देवपूजा, गुरु-उपासना और स्वाध्याय मनोमज्जन अथवा भावना वृद्धि के लिए हैं और संयम आदि आगे की तीन क्रियायें यथा-शक्ति-त्याग व तपका अभ्यास करने के लिए हैं। इन छहों का अभ्यास करने से साधक श्रावक आदि की क्रमोन्नत भूमियों में प्रवेश पाने की योग्यता जागृत कर लेता है। इसलिए साधक का कर्तव्य है
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