SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (iv) मोटे-मोटे खण्ड थे जो कि इन परचों को व्यवस्थित करने के लिए लिखे गये थे। इसका चौथा रूप वह रूपान्तरण था जिसका काम बीच में ही स्थगित कर दिया गया था। इसका पाँचवां रूप वे कई हजार स्लिपें थीं जो कि जैनेन्द्र प्रमाण कोष तथा इस रूपान्तरण के आधार पर वर्णी जी न ६-७ महीने लगाकर तैयार की थीं तथा जिनके आधारपर कि अन्तिम रूपान्तरण की लिपि तैयार करनी इष्ट थी । इसका छठा रूप यह है जो कि 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' के नाम से आज हमारे सामने विद्यमान है। यह एक आश्चर्य है कि इतनी रुग्ण काया को लेकर भी वर्णी जी ने कोष के संकलन सम्पादन तथा लेखन का यह सारा कार्य अकेले सम्पन्न किया है । सन् १९६४ में अन्तिम लिपि लिखते समय अवश्य आपको अपनी शिष्या ब्र० कुमारी कौशल का कुछ सहयोग प्राप्त हुआ था, अन्यथा सन् १९५९ से सन् १९६५ तक १७ वर्ष के लम्बे काल में आपको तृण मात्र भी सहायता इस सन्दर्भ में कहीं से प्राप्त नहीं हुई। यहाँ तक कि कागज जुटाना उसे काटना तथा जिल्द बनाना आदि का काम भी आपने अपने हाथ से ही किया। यह केवल उनके हृदय में स्थित सरस्वती माता की भक्ति का प्रताप है कि एक असम्भव कार्य भी सहज सम्भव हो गया और एक ऐसे व्यक्ति के हाथ से सम्भव हो गया जिसकी क्षीण काया को देखकर कोई यह विश्वास नहीं कर सकता कि इसके द्वारा कभी ऐसा अनहोना कार्य सम्पन्न हुआ होगा। भक्ति में महान शक्ति है, उसके द्वारा पहाड़ भी तोड़े जा सकते हैं । यही कारण है कि वर्णी जी अपने इतने महान कार्य का कर्तृत्व सदा माता सरस्वती के चरणों में समर्पित करते आए हैं, और कोष को सदा उसी की कृति कहते आये हैं । यह है भक्ति तथा कृतज्ञताका आदर्श। __ यह कोष साधारण शब्द-कोष जैसा कुछ न होकर अपनी जाति का स्वयं है। शब्दार्थ के अतिरिक्त शीर्षकों उपशीर्षकों तथा अवान्तर शीर्षकों में विभक्त उसकी वे समस्त सूचनायें इसमें निबद्ध हैं, जिनकी कि किसी भी प्रवक्ता लेखक अथवा संधाता को आवश्यकता पड़ती है। शब्द का अर्थ, उसके भेद प्रभेद, कार्य कारण भाव, हेयोपादेयता, निश्चय व्यवहार तथा उसकी मुख्यता गौणता, शंका समाधान, समन्वय आदि कोई ऐसा विकल्प नहीं जो कि इसमें सहज उपलब्ध न हो सके । विशेषता यह कि इसमें रचयिता ने अपनी ओर से एक शब्द भी न लिखकर प्रत्येक विकल्प के अन्तर्गत अनेक शास्त्रों से संकलित आचार्यों के मूल वाक्य निबद्ध किये हैं। इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिसके हाथ में यह महान् कृति है उसके हाथ में सकल जैन-वाङ्मय है। -सुरेश कुमार जैन गार्गीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy