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२५. स्वाध्याय
( १. स्वाध्याय का महत्त्व; २. शास्त्र विनय; ३. शास्त्र क्या; ४. प्रयोजनीय विवेक ।
१. स्वाध्यायका महत्त्व-अहो ! मुझ जैसे अल्पज्ञ को घर बैठे समस्त विश्व का साक्षात्कार कराने वाली माँ-सरस्वती का उपकार । यदि यह न होती तो आज इतनी निकृष्ट परिस्थिति में जब कि देव दिखाई देते हैं न गुरु, मुझे शान्ति की बात कौन सुनाता? शान्ति-मार्ग की साधना के अन्तर्गत आज स्वाध्याय की बात चलनी है।
शान्ति-प्राप्ति की सिद्धि के अर्थ आवश्यकता इस बात की है कि जिस किस प्रकार भी अभिलाषा-प्रवर्द्धक विकल्पों का, भले कुछ देर के लिये सही, संवरण कर दिया जाय, प्रशमन कर दिया जाय । उपाय निकला यह कि सारी जीवन-चर्या में से आध या पौन घण्टा अवकाश निकालकर, उतने समय मात्र के लिये गृहस्थ के वातावरण को बिल्कुल भूलने तथा शान्ति का स्मरण करने का प्रयत्न कीजिए । मन्दिर में जाकर देव दर्शन या पूजन कीजिये अथवा गुरु की शरण में जाकर उनकी उपासना कीजिये । परन्तु विचार करने पर यह बात ध्यान में आये बिना न रहेगी कि इन कामों में थोड़ी देर ही सलंग्न रह सकता हूं। स्वतन्त्र-रूप में अपने हृदय से निकाल-निकालकर कब तक प्रभु-भक्ति के उद्गार प्रकट कर सकूँगा? सम्भवत: चार-पाँच दिन तक बना रहे यह क्रम, परन्तु तत्पश्चात वे उद्गार सरीखे दीखने वाले भाव शब्दमात्र ही रह जायेंगे और मन अपना काम करता रहेगा गृहस्थी में घूमने का। तात्पर्य यह कि शान्ति के दर्शनों में चित्त अटकाने का काम इस प्रथम भूमिका में अधिक देर तक किया जाना बहुत कठिन है। इसलिये इन कामों के अतिरिक्त कोई और काम ऐसा ढूंढना होगा जिसमें कि बहुत अधिक देर तक उपयोग को अटकाया जा सके, और इतना अटकाया जा सके कि शान्ति की बातों के अतिरिक्त इसे अन्यत्र जाने को आवकाश न मिले । सौभाग्यवश एक उपाय निकल ही आया, और वह है 'स्वाध्याय'।।
दूसरा प्रयोजन यह है कि भले ही गुरु में शान्ति के दर्शन कर पाया हूं पर इस शान्ति से बिल्कुल अपरिचित मुझ को शब्दों के बिना कौन यह बताये कि इसकी प्राप्ति अमुक प्रकार होनी सम्भव है ? नमूना अपना स्वरूप बता सकता है पर अपने बनाने का उपाय नहीं। मुझ को तो अशान्त से शान्त बनना है और बड़े विकट वातावरण में रहते हुये बनना है। क्या-क्या प्रक्रियायें करूँ, जीवन को कैसे ढालूं जो इस प्रयोजन की सिद्धि हो? ठीक है कि देव दर्शन और गुरु उपासना भी इस मार्ग में बड़ी सहायक प्रक्रियायें हैं, परन्तु मन्दिर के समय से बचे जीवन के इतने लम्बे काल में क्या वैसे ही वर्तन करता रहूँ जैसे कि अब कर रहा हूं? ऐसा ही करता रहूँ तो देव व गुरु के दर्शनों से प्राप्त हुई शान्ति थोड़ी देर भी न टिक सके और जीवन के २४ घण्टे अत्यन्त तीव्र व्यग्रता में बिताये जाने के कारण, मन्दिर में प्रवेश करते समय भी तत्सम्बन्धी विकल्पों के दृढ़ संस्कारों का त्याग थोड़ी देर के लिये भी न कर सकूँ। अत: कुछ ऐसी बातें भी अवश्य होनी चाहिये जिनको वर्तमान परिस्थिति में रहते हुये भी मैं अपने चौबीस घण्टों के जीवन में किञ्चित् उतार सकू और विकल्पों की तीव्रता में तनिक मन्दता ला सकू। कौन बताये यह बातें मुझे।
घबरा नहीं जिज्ञासु ! वह देख सामने से आती हुई प्रकाश की एक रेखा अब भी तुझे बुला रही है अपनी ओर । चल, कुछ प्रकाश मिलेगा जिसकी सहायता से तू अपने जीवन को पढ़ सकेगा कि क्या कुछ और करना है तुझे।
ओह ! यह तो वाणी है, माँ सरस्वती है, कितना शान्त है इसका स्वरूप जिसके दर्शन मात्र से इतनी तृप्ति बातें सुनने से क्या न होगा? कृपा कीजिए माता ! मुझे मार्ग दर्शाइए, देव तथा गुरु दर्शन से आने वाली क्षणिक शान्ति ने मेरे चित्त में अब यह लग्न उत्पन्न कर दी है कि जिस-किस प्रकार भी इसमें अधिकाधिक वृद्धि करूँ। अब गृहस्थी सम्बन्धी व्यग्रता साक्षात्-रूप से मुझको दाह उत्पन्न करती प्रतीत होने लगी है। मेरी रक्षा करो माँ।
स्वाध्याय का अर्थ है स्व+अध्याय या स्व-अध्ययन, अर्थात् निज शान्त स्वरूप का अध्ययन या दर्शन । यद्यपि देव-दर्शन व गुरु-उपासना में भी यही कार्य सिद्ध होने के कारण वे दोनों कार्य भी स्वाध्याय कहे जा सकते हैं परन्तु
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