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२५. स्वाध्याय
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२. शास्त्र-विनय
अधिक देर तक विकल्पों से बचकर कुछ अधिक शान्ति में स्थिति पाने के अर्थ यह तीसरा कार्य अधिक उपयोगी है। अत: मुख्यत: स्वाध्याय उस तीसरी प्रक्रिया का नाम है जिसमें समावेश पाता है उपदेश, मौखिक या लिखित।
यद्यपि देव से भी कुछ मूक-उपदेश प्राप्त हुआ, पर उसका क्रम अधिक देर तक न चल सका । गुरु के द्वारा भी मौखिक उपदेश दिया गया जिससे महान कल्याण हुआ और जी चाहा कि निरन्तर इस अमृत का पान करता रहूँ । जितनी देर तक उपदेश सुनता रहा, जैसा कि यहाँ प्रवचन सुनते हुये आपको प्रतीत होता है, मानो मैं सब कुछ भूल गया, जीवन में एक उत्साहसा आता प्रतीत होता रहा, कुछ प्रेरणा मिलती रही । परन्तु कहाँ है मेरा इतना सौभाग्य कि गुरु प्रतिदिन मुझको मिलते रहें? आज मिले कल नहीं, रमते जोगी हैं, वन-वन विचरते हैं, क्या जाने किधर निकल जायें,
और फिर मेरे लिये वही अन्धकार । आज तो समस्या ही दूसरी है, एक दिन का भी गुरु का सम्पर्क होना सम्भव प्रतीत नहीं होता, गुरु ही दिखाई नहीं देते । जहाँ दर्शन की ही सम्भावना नहीं वहाँ उपदेश कैसा? इस प्रकार रह गया मैं कोरा का कोरा, असमञ्जस में पड़ा, बग़लें झाँकता और विचारता कि क्या करूँ, कैसे रक्षा करूँ इन दुष्ट विकल्पों से अप
सौभाग्यवश सरस्वती माँ ने आशा दिलाई, और वह देखो अब भी कितने प्रेम से बुला रही है मुझे अपनी ओर । अब कोई चिन्ता नहीं, आश्रय मिल गया, ऐसा कि चाहे कितनी ही देर सुनता रहूँ उपदेश, चाहे जितना समय बिता दूं और विकल्पों को प्रवेश पाने का अवकाश न मिले। जो हर समय मेरे पास है, कहीं वन आदि में जाने की आवश्यकता नहीं अर्थात् गुरुओं का ही लिखित उपदेश, आगम या शास्त्र । जितनी देर चाहूँ पढूं, जितनी बार चाहूँ पलूं, जब चाहूँ विचारूँ, जहाँ चाहूँ विचारूँ, जैसी अवस्था में चाहूँ विचारूँ और विशेषता यह कि वही गुरु की बात, वही प्रतिध्वनि, मानो साक्षात् गुरु ही बोल रहे हैं, सामने बैठे। गहन तथा गम्भीर से गम्भीर समस्याओं का सरल उपाय बता देने में समर्थ, यह आगम ही है वास्तव में सरस्वती । शान्ति में स्नान तथा अन्तर्मल शोधन के लिये यही यथार्थ गंगा है, और विकल्पों से मेरी रक्षा करने के कारण यही माता है।
स्वाध्याय का अर्थ शास्त्र को पढ़ना मात्र नहीं है बल्कि उसका अर्थ है जिस-किस प्रकार भी शान्ति-मार्ग के पदेश का रहस्यार्थ ग्रहण करना तथा उसमें इस अत्यन्त चंचल मन को अटकाना । इसलिये "विशेष ज्ञानी या उपयक्त वक्ता के मुख से वह रहस्य सुनना, विशेष स्पष्टीकरण के अर्थ शंकायें उठना, प्रश्न कर-करके समाधान करना, अवधारित अर्थ को एकान्त में पुन: पुन: चिन्तवन करना या विचारना, जो कुछ समझा है उसका परम्परा या आम्नाय से मिलान करके परीक्षा करना कि ठीक समझा हूँ या नहीं, कही भूल तो नहीं है, यदि भूल हो तो पक्षपात तजकर उसके सुधार का प्रयत्न करना, जो निर्णय किया है उसका उपदेश अन्य को देना या जो समझा है उसको लिखना” यह सब स्वाध्याय है कोई पढ़ना जाने या न जाने, उपदेश देना जाने या न जाने किसी न किसी प्रकार स्वाध्याय अवश्य कर सकता है और मार्ग का निर्णय कर अपना हित कर सकता है।
२. शास्त्र-विनय देव तथा गुरु की भाँति स्वाध्याय में भी विनय तथा बहुमान अत्यन्त आवश्यक है, विनय-रहित सुना या पढ़ा बेकार है । गुरु व वाणी के प्रति बहुमान न हो तो कोई भी बात सीखी नहीं जा सकती। मुझे केवल पढ़कर स्वाध्याय की रूढ़ि पूरी नहीं करनी है बल्कि कुछ हित की बात सीखनी है। विनय-युक्त होकर ही सीखा जा सकता है कुछ, जिस प्रकार कि लक्ष्मण ने सीखी थी विद्या रावण से, अथवा राजा ने सीखी थी विद्या चोर से (दे०४०/३.२)
इसीलिए शास्त्र को पुस्तक मात्र न देखकर साक्षात् गुरु के रूप में देखो, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि प्रतिमा में जीवित देव के दर्शन किये थे। शास्त्र जड़ नहीं हैं, यह साक्षात् बोलकर मेरा हित दर्शा रहा है, पद-पद पर ठोकर से बचा रहा है, गहन से गहन ग्रन्थियों को सुलझा रहा है । अहो इसका उपकार? न जानी, न देखी, न अनुभवी, अत्यन्त रहस्यमयी सूक्ष्म से सूक्ष्म बात को हथेली पर रखकर दर्शा रहा है। कितनी शीतलता प्रदायक है और प्रकाश-वर्द्धक है इसकी शरण? इसकी विनय अत्यन्त आवश्यक है। बिना नहाये व हाथ धोये इसे छूने में, बिना शुद्ध वस्त्र पहने इसे हाथ लगाने में, इसकी अविनय है। शुद्धता व अशुद्धता के विवेक रहित जिस-किसी स्थान में बैठकर इसे उपन्यास की भाँति पढ़ने में इसकी अविनय है। उठाते व धरते समय अत्यन्त विनय से साष्टांग नमस्कार किए
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