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२५. स्वाध्याय
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३. शास्त्र क्या
बिना, उद्दण्डता से सामने जाकर बैठ जाने में इसकी अविनय है। स्थान एकान्त व शुद्ध होना चाहिए, मन्दिर ही उसके लिये सर्वोत्तम स्थान है, और घर पर भी यदि पढ़ें तो किसी एकान्त कमरे में ही पढ़ें, जहाँ जूते आदि न आते हों। जिस-किस समय में पढ़ना योग्य नहीं, जब अन्य विकल्पों से किञ्चित मुक्ति मिले तब ही पढ़ना योग्य है। रूढ़ि पूरी करने मात्र को एक दो लकीर इधर-उधर से जैसे-तैसे पढ़कर जल्दी से भागने का अभिप्राय रखते हुये पढ़ना, पढ़ना नहीं दण्ड है और बिना स्पष्ट उच्चारण किए, बिना अर्थ समझे पढ़ना भी पढ़ना नहीं रूढ़ि है। इस प्रकार पढ़ना इसकी अविनय है। अत: सर्व बातों का विचार करके, अपने लिये अत्यन्त कल्याणकारी समझते हुये, कुछ जीवन में उतारने योग्य उपयोगी बातें सीखने पर इसके पढ़ने या सुनने से लाभ हो सकता है। केवल पढ़ने मात्र के अभिप्राय वालों के लिये तो यह कुछ पत्रों का ढेर मात्र है, लाभदायक कुछ नहीं । जैसी दृष्टि से पढ़ेगा वैसा ही फल मिलेगा।
परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि 'स्वाध्याय' मन्दिर की चार दीवारी के अन्दर ही हो सकनी सम्भव है, बाहर नहीं। जो कुछ पढ़ा या सुना है उसका चिन्तवन हम कहीं भी बैठकर कर सकते हैं, कैसी भी अवस्था में कर सकते हैं, किसी भी समय में कर सकते हैं और इसलिये स्वाध्याय चौबीस घण्टे की जा सकती है । यद्यपि इसी प्रकार मन के द्वारा देव व गुरु के दर्शन भी सर्वत्र व सर्वदा किये जा सकते हैं, परन्तु जैसा कि पहले बताया जा चुका है उसमें अधिक देर स्थित नहीं रह सकते । शास्त्र में पढ़े या सुने तत्त्वों-सम्बन्धी विचारना में और तत्सम्बन्धी तर्क-वितर्कों में हम कई-कई घण्टे बिता सकते हैं । अत: यही है स्वाध्याय का महत्व और इसीलिये इस मार्ग में बहुत आवश्यक व उपयोगी है यह ।
३. शास्त्र क्या हे मातेश्वरी सरस्वती ! अब अपने इस बालक को अनाथ न रहने दो, तुम्हारी अवहेलना करके अनाथ बना दर-दर की ठोकरें खाता रहा, अब अपनी गोद में स्थान दो । स्वाध्याय का प्रकरण है—इसका प्रयोजन, इसका अर्थ व इसके प्रति विनय की बात आ चुकी, अब विचारना यह है कि कौन से शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य हैं। प्रारम्भ से आज तक मैंने किसी बात को बिना परीक्षा किये अन्धविश्वासी बनकर नहीं अपनाया। मैं वैज्ञानिक बनकर निकला हूँ, मैं खोजी बनकर निकला हूँ, बिना क्या और क्यों किसी भी बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं । देव व गुरु को बिना परीक्षा किये मैंने स्वीकार न किया, तो शास्त्र को कैसे कर लूं?
देव व गरु की भाँति यहाँ भी हम नियम नहीं बना सकते कि अमक ही सच्चा शास्त्र है, क्योंकि भिन्न-भिन्न अभिप्रायों के आधार पर आज अनेकों शास्त्र या पुस्तकें या साहित्य लोक में दिखाई दे रहे हैं। किसी को सर्वथा झूठा नहीं कहा जा सकता और किसी को सर्वथा सच्चा भी नहीं कहा जा सकता । सच्चे व झूठे की पहिचान अभिप्राय पर से होती है । डाक्टरी सम्बन्धी जानकारी का अभिप्राय रखने वाले के लिये डाक्टरी सम्बन्धी साहित्य सच्चा और अन्य सब झूठा, एन्जीनियरिंग पढ़ने की अभिलाषा रखने वाले के लिये एन्जीनियरिंग विषयक साहित्य सच्चा और अन्य सब झूठा । इसी प्रकार जिसका जो भी विषय पढ़ने या सीखने का अभिप्राय हो उसके लिये तत्सम्बन्धी साहित्य ही सच्चा कहा जा सकता है, उसके अतिरिक्त अन्य नहीं । यहाँ हम किसे सच्चा शास्त्र व साहित्य स्वीकार करें?
आओ खोज करें इसकी। चलो पहले अपने भीतर ही देखें । देखो यह रहा शान्ति विषयक सच्चा शास्त्र मेरे हृदय में । कितने-कितने सूक्ष्म रहस्य लिखे हैं इसमें, तर्क तथा शब्द जिनका स्पर्श करने को समर्थ नहीं। कितना बड़ा विस्तार लिखा है इसमें, सब तीर्थंकर मिलकर बताने लगे और सब गणधर मिलकर लिखने लगें तो न पूरा कहा जा सके और न पूरा लिखा जा सके। कितना अधिक स्पष्टीकरण है इसमें कि शब्द के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं। दृष्टान्त-दार्टान्त का भी भेद नही जहाँ । स्वयं ही दृष्टांत और स्वयं ही दान्ति, स्वयं ही प्रतिज्ञा और स्व ही हेत। महान है न्यास इसका। कितनी सरल भाषा है इसकी, कि कोई भी पढ़ सके, कोई भी समझ सके, मूढ़ हो या विद्वान, बालक हो या जवान । हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हैं सकल विषय इसमें ।
__परन्तु किसी बिरले महाभाग्य को ही परिचय है इसका। अत: आओ बाहर में खोजें, सम्भवत: कोई और भी शास्त्र मिल जाए, साहित्य की क्या कमी इस लोक में? ओह कितना विशाल है साहित्य भण्डार प्रकृति-माँ का। अणु-अणु, कण-कण है शास्त्र यहाँ, अपने-अपने विषय के अनन्त विस्तार-युक्त, बिल्कुल उपर्युक्त हृदय-शास्त्र की भाँति । सैकड़ों वर्ष बीत गये, विश्व भर के वैज्ञानिक लिखते-लिखते थक गए, परन्तु क्षुद्रातिक्षुद्र दिखने वाले इस छोटे
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