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________________ २५. स्वाध्याय १६१ ३. शास्त्र क्या से अणु का विस्तार पूरा न लिख सके आज तक । इसी प्रकार एक-एक वृक्ष, एक-एक अंकुर, एक-एक पशु, एक-एक पत्ती, एक-एक मनुष्य, जो कुछ भी है यहाँ, जड़ या चेतन, सब है अपना-अपना शास्त्र स्वयं । इन्हीं के भीतर देखकर, इन्हीं को पढ़कर, इन्हीं के विस्तार को लिखते हैं वैज्ञानिक अथवा साहित्यकार अथवा कवि। सब कुछ लिखा है इनमें, पढ़ने वाला चाहिये, जो जितना पढ़ना चाहे उतना ही मिल जायेगा उसे लिखा हुआ यहाँ । परन्तु किसमें है योग्यता स्वतन्त्र रूप से इस विशाल साहित्य को पढ़ने की, बिना सरस्वती माँ की उपासना किये । जो पढ़ने के लिये समर्थ हैं आज इसे, इन्होंने भी की है सरस्वती माँ की उपासना। परन्तु इसका भण्डार भी है अथाह । कौन सा शास्त्र चुनूं स्वाध्याय के लिये स्व-अध्ययन के लिये? स्पष्ट है कि वही शास्त्र चुनूं जिसमें स्व-विषयक बातें लिखी हों, जिसमें आत्मा के स्वरूप का, उसकी शान्ति तथा समता का अथवा इनकी प्राप्ति के उपाय का स्पष्ट तथा सरल विवेचन उपलब्ध हो । अत: शान्ति-पथ दर्शाने वाली वाणी ही सच्ची वाणी हो सकती है यहाँ, लौकिक प्रयोजन दर्शाने वाली या शरीर पोषण की बातें बताने वाली नहीं । अब कुछ बुद्धि का प्रयोग करना है। आज लोक में बहुत बड़ा साहित्य हमारे सामने है, और सब ही शान्ति पथ दर्शाने का दावा करता है, सबके ऊपर शान्ति-पथ की मोहर लगी है, सबको साक्षात भगवान से आया हुआ माना जा रहा है, और मजे की बात यह कि एक शान्ति को दर्शाने वाले होते हुये भी परस्पर एक दूसरे का विरोध कर रहे हैं, मानो एक दूसरे से लड़ रहे हैं । बड़ी विकट समस्या है, किसको सच्चा मानूं? पढ़ने बैठता हूँ तो प्रत्येक में कुछ न कुछ बातें अवश्य शान्ति प्रदान करती प्रतीत होती हैं, परन्तु आगे जाकर कुछ अन्य बातें और आ जाती हैं, जो या तो शान्ति में बाधक हैं या इस विषय से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । और आगे जाता हूँ तो अरे ! किसी का खण्डन, और किसी का मण्डन, पढ़ने को ही जी नहीं चाहता। अहो ! यह वीतराग-वाणी का ही प्रताप है, जिससे कि मुझे यह प्रकाश मिला कि भाई ! हर साहित्य में जो बातें तुझे शान्तिप्रद प्रतीत हों, समझ ले कि वे सच्ची हैं, अथवा विचार करके तर्क व अनुभव द्वारा जो सच्ची दिखाई देती हों, मान ले कि वे सच्ची हैं, अथवा विचार करके तर्क व अनुभव के द्वारा जो सच्ची दिखाई देती हों, मान ले कि वे सच्ची हैं, भले ही वे किसी भी साहित्य में लिखी हों। सब शान्तिप्रद व सच्ची बातें एक सच्ची वाणी के ही अंश हैं जिन्हें किन्हीं ज्ञानियों ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है। यह बात अवश्य है कि अधिकतर साहित्य ऐसा है कि जिसमें आदि से अन्त तक का पूर्ण मार्ग न दर्शाकर उस मार्ग का एक खण्ड मात्र दर्शाया है। इसका कारण यही है कि उसका रचयिता शान्ति को तो पकड़ पाया, पर उसे पूर्ण करने से पहले ही उसे काल के मुख में जाना पड़ा और उसकी बात अधूरी रह गई । कुछ साहित्य ऐसा भी है कि जिसमें इस अधूरी बात के साथ-साथ कुछ अन्य बातों का अथवा कुछ अप्रयोजनीय बातों का मिश्रण दिखाई देता है । तनिक सा विचार करने पर यह पेबन्द स्पष्ट दिखाई देने लगता है । ऐसा साहित्य वह है जो कि मूल रचयिताओं की कृति न होकर उसके पीछे आने वाले किन्हीं व्यक्तियों द्वारा लिखा गया है। अधूरी बात सीख लेने के कारण इनको उसकी पूर्ति के अर्थ कुछ बातें अपनी कल्पना के आधार पर, बिना उसके सच्चे व झूठेपने का अनुभव किये, इस मूल साहित्य में मिला देनी पड़ी, और वह साहित्य विकृत हो गया । उसके पीछे आने वालों ने कुछ अपने स्वार्थवश उसमें और भी बहुत सी बातें मिला दीं और आगे चलकर वह स्वार्थ बदल गया द्वेष में, जिसके कारण आ मिला उस साहित्य में खण्डन-मण्डन का विष । ___ यह तो हुई साहित्य के इतिहास की कुछ रूपरेखा, पर इतना जानने मात्र से कोई साहित्य के सच्चे व झूठेपने की परीक्षा नहीं कर सकता। अत: परीक्षा का कोई उपाय होना चाहिये । विचार करने पर एक उपाय निकल आया। देख भाई ! शास्त्र तो बेचारे जड़ हैं, वे तो स्वयं बोल नहीं सकते, उनके अन्दर तो कुछ शब्दों का संग्रह है और इन शब्दों में छिपा है वक्ता का कोई अभिप्राय । बस यदि वक्ता की परीक्षा हो जाये तो उसके वाक्यों की भी मानो परीक्षा हो गई क्योंकि शब्दों की प्रमाणिकता वक्ता की प्रमाणिकता के आधार पर होती है, जैसा कि पहले श्रद्धा सम्बन्धी उस पथिक के दृष्टान्त में बता दिया गया है । देखिये कोई ग्राहक आकर आपसे कहने लगे कि यह वस्तु अमुक दुकान पर यह भाव मिल रही है यदि आपको इस भाव देनी हो तो दे दो, तो बताइये, क्या आप विश्वास कर लेंगे उसकी बात पर? नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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