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________________ २५. स्वाध्याय १६२ ४. प्रयोजनीय विवेक करेंगे। क्या कारण? एक तो यह कि स्पष्ट झूठ दिखाई दे रहा है। जितने में आपको घर में भी नहीं पड़ी उतने में वह उसे कैसे बेच सकता है? परन्तु हो सकता है कि भाव गिर गया हो। इस संशय को दूर कर देता है उस ग्राहक का अपना स्वार्थ, यदि इस भाव देनी है तो दे दो। और यदि वही बात मैं आपको आकर कहूँ तो आप अवश्य स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि न मुझे आपसे मोल लेनी थी, न बेचनी थी, जैसा उस दुकान पर सुनकर आया था आपसे कह दिया, आपके घर उतने में पड़ी है कि नहीं पड़ी है, मुझे उससे क्या मतलब । अत: वक्ता की प्रमाणिकता से ही वचन की प्रमाणिकता होती देखी जाती है, और वक्ता की परीक्षा उसकी स्वार्थता व निस्वार्थता पर से की जा सकती है। तात्पर्य यह कि इस वीतरागता व शान्ति के मार्ग में वीतराग द्वारा लिखित शास्त्र ही प्रमाणिक शास्त्र कहा जा सकता है, रागी-द्वेषी द्वारा लिखित नहीं । रचयिता के अभाव में कैसे जानें कि वह वीतराग था कि रागी? यह बात शास्त्र पढ़कर जानी जा सकती है। उन वाक्यों का झुकाव किस ओर जा रहा है, किसी निजी स्वार्थ का पोषण तो करता प्रतीत नहीं होता, सर्व-सत्व-कल्याण की भावना प्रतिध्वनित हो रही है या नहीं, उन वाक्यों में माधुर्य है या कटुता, उन वाक्यों में किसी की ओर आक्षेप तो नहीं किया जा रहा है, किसी एक पक्ष का पोषण करने के लिये उस विषय के अंगभूत अन्य बातों का निषेध तो नहीं किया जा रहा है अथवा किसी बात को आवश्यकता से अधिक खेंचकर उसे एकांगी या साम्प्रदायिक रंग में तो नहीं रंगा जा रहा है, किसी मत मतान्तर पर या किसी श्रद्धा पर चोट तो नहीं की जा रही है, उसमें कहीं कोई लौकिक अभिप्राय तो दिखाई नहीं दे रहा है, कहीं किसी को अशान्ति उत्पन्न करने वाली या पीड़ा पहुँचाने वाली बात तो नहीं कही जा रही है, पहले कुछ लिखकर पीछे स्वयं उस बात का निषेध तो नहीं कर रहा है अथवा उस अपनी ही बात का निराकरण या विरोध करने की बात तो नहीं लिख रहा है, कुछ असम्भव बातें तो नहीं लिखी हैं ? इत्यादि अनेक बातें पढ़कर वक्ता की प्रमाणिकता का निर्णय किया जा सकता है। उपरोक्त तथा इसी जाति के यदि दोष वक्तव्य में दिखाई दें, तो समझ लें कि वक्ता प्रमाणिक नहीं है। इतना ही नहीं और भी अधिक सावधानी की आवश्यकता है यहाँ, क्योंकि जहाँ मिश्रित अभिप्राय पड़ा हो वहाँ परीतता की परीक्षा करना कुछ कठिन पड़ता है। अत: भले ही सारे शास्त्र में निर्दोष बातें भरी पड़ी हों, परन्तु कही एक भी कोई दषित बात दिखाई दे तो समझ लो कि उन सर्व निर्दोष बातों का कोई मल्य नहीं का नहीं करनी चाहिए कि भले दषित बात को स्वीकार न करो पर निर्दोष बात का निषेध क्यों करते हो। सो भाई ! इसके अन्दर निर्दोष बात का निषेध करने का अभिप्राय नहीं है, वक्ता का निषेध करने का अभिप्राय है । जैसा कि ऊपर दृष्टान्त में बताया गया है, एक ही बात दो व्यक्तियों के मुख से सुनकर ग्राहक के मुख से निकला हुआ वही वाक्य झूठा माना गया और मेरे मुख से निकला हुआ वही वाक्य सच्चा माना गया । कोई व्यक्ति कभी माता को माता कहता है और कभी माता को पली भी कह देता है, तो क्या कहेंगे आप उसे? "यह नशे में है, इसकी कोई भी बात ठीक नहीं। माता को माता भी बेहोशी में कह रहा है, इसे कुछ पता नहीं कि माता कौन और पत्नी कौन ।" यही तो कहोगे? बस इसी प्रकार ९९ बातें ठीक कहकर एक बात विपरीत कह रहा हो तो उसकी ९९ बातें भी ठीक नहीं हैं। या तो किसी दूसरे की नकल करके कही हैं या बिना समझे बूझे यों ही सुन-सुनाकर कह दी हैं । सम्भवत: आगे चलकर कोई ऐसी बात भी कह दे कि जो मेरे लिये अहितकारी हो और उस समय प्रमादवश में उसकी परीक्षा न करूँ तो मेरा अहित हो जाय, इसलिये इसकी सारी ही बातें मान्य नहीं हैं। अथवा जिस प्रकार कोई दुकानदार सच्चा व्यवहार करके पहले अपनी साख जमा लेता है और पीछे लोगों का रूपया मारकर भाग जाता है । उसी प्रकार स्वार्थी वक्ता पहले बहुत सी सच्ची व शान्ति की बातें बता कर अपना विश्वास जमा लेता है, और पीछे अपने स्वार्थ की बात कहकर अपना उल्ल सीधा कर लेता है. चाहे पढने वाले का हित हो या अहित इस बात की उसे चिन्ता नहीं । इसलिये ऐसे वक्ता की कोई भी बात स्वीकार करनी योग्य नहीं, भले शान्ति की क्यों न हो। यही बात यदि किसी दूसरे प्रमाणिक शास्त्र में लिखी हुई पायें तो विश्वास करने योग्य है । अत: शास्त्र की परीक्षा का उपाय यही है कि पूरे के पूरे शास्त्र में हित की बात के अतिरिक्त अन्य बात किञ्चित भी न हो, यदि एक भी बात अहित या स्वार्थ की हो या असंगत हो, तो समझ लो कि सारा शास्त्रं अप्रमाण है, पढ़ने योग्य नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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