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________________ २५. स्वाध्याय १६३ ४. प्रयोजनीय विवेक ४. प्रयोजनीय विवेक शास्त्र की परीक्षा कर लेने के पश्चात् पुनः अड़चन आती है यह कि प्रमाणिक पुरुषों द्वारा लिखे गये शास्त्र भी मुख्यतः चार कोटियों में विभाजित किये गये हैं- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग, और चरणानुयोग । १. कुछ शास्त्र तो शान्ति पथ पर चलने वालों के जीवन चरित्र दर्शाकर कोई आदर्श उपस्थित करते हैं, अर्थात् आदर्श पुरुषों की कथाओं का निरूपण करते हैं । उनको कथानुयोग या प्रथमानुयोग कहा जाता है, क्योंकि इनमें प्राथमिक जनों को शान्ति पथ की ओर आकर्षित करने का अभिप्राय छिपा है और इसलिये इनमें श्रृंगार रस आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार बताशे में रख कर कड़वी भी औषधि बालकों को खिला दी जाती है, उसी प्रकार सुन्दर-सुन्दर कथाओं तथा श्रृंगार आदि रसों के कथन के साथ, बीच-बीच में यथास्थान जीवनोपयोगी बातों का व तत्त्वों का निरूपण भी कर दिया गया है। अत: प्रथमानुयोग में चारों ही अनुयोगों सम्बन्धी बातों का सुन्दर व संक्षिप्त संग्रह मिलता है । २. कुछ ऐसे हैं जिनमें तत्त्वों का अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से निरूपण किया गया है तथा अत्यन्त परोक्ष व सूक्ष्म बातों का भी, जैसे कि कार्मण शरीर तथा उसके बनने व बिछुड़ने सम्बन्धी अथवा द्वीप समुद्रों आदि सम्बन्धी । उसे करणानुयोग कहते हैं । ३. कुछ ऐसे हैं जिनमें वस्तु का अनुभवात्मक स्वरूप दर्शाया है, स्व व पर में विवेक कराया है, सुख व दुःख का सच्चा स्वरूप बताया है तर्क व बुद्धि से उसकी अनेक प्रकार सिद्धि करते हुये वैज्ञानिक ढंग से विवेचन किया है। उसे 'द्रव्यानुयोग' कहते हैं । ४. कुछ ऐसे हैं जो हमें हमारा कर्त्तव्य व अकर्तव्य बता रहे हैं तथा अपने जीवन को किस प्रकार शान्ति के सांचे में ढालना चाहिए, किस प्रकार शान्ति प्राप्ति के अर्थ साधना करनी चाहिए, यह बता रहे हैं। इसे 'चरणानुयोग' कहते हैं । T यद्यपि ये चारों ही प्रमाणिक हैं परन्तु इस वर्तमान की भूमिका में क्या चारों ही पढ़े जाने योग्य हैं ? नहीं भाई ! इनमें से पहले दो की तो इस अवस्था में तेरे लिये आवश्यकता नहीं। प्राथमिक कोटि से तू निकल चुका है, तभी तो यहाँ बैठा सुन रहा है, इतनी रुचि से । इसलिये प्रथमानुयोग वर्तमान में तेरे लिये विशेष प्रयोजनीय नहीं है। अभी तक तो तू स्थूल बातों तक का भी निर्णय नहीं कर सका, सूक्ष्म को कैसे जान सकेगा ? अत्यन्त परोक्ष बातों को जैसे कर्म व द्वीप समुद्रों के वर्णन को अभी जान कर क्या करेगा, और दृष्टि सूक्ष्म बने बिना वह तेरी समझ में भी क्या आयेगा ? अतः 'करणानुयोग' भी वर्तमान दशा में तेरे लिये विशेष प्रयोजनीय नहीं है । यहाँ ऐसा न समझ लेना कि इनके पढने का निषेध किया जा रहा है, निषेध का अभिप्राय नहीं है बल्कि थोड़े समय में अधिक कल्याण कैसे प्राप्त हो, यह अभिप्राय है । कुछ अनुभव तथा स्थूल सिद्धान्तों का ग्रहण हो जाने के पश्चात् करणानुयोग महान उपकारी सिद्ध होगा। किसी को 'बैंगन वायले, किसी को बैंगन पच' अर्थात् जो करणानुयोग तेरे लिये प्रयोजनीय नहीं है, वह किसी अन्य के लिये जिनकी दृष्टि मञ्ज चुकी है, अत्यन्त उपकारी है, तथा जो आज तेरे लिये प्रयोजनीय नहीं है वही कल तेरे लिये उपकारी सिद्ध होगा। इसी प्रकार प्रथमानुयोग भले ही तेरे लिये इस समय उपयोगी न हो, क्योंकि तेरी श्रद्धा दृढ़ हो चुकी है, परन्तु ऐसे प्राथमिक जन जो कभी मन्दिर में भी आना नहीं जानते, उनको मार्ग की श्रद्धा कराने के लिये यही एक मात्र साधन है, क्योंकि कथाओं के आधार पर बालकों को भी कठिन से कठिन बात समझा देनी तथा उसका फल दर्शाकर उस पर दृढ़ श्रद्धा करा देनी शक्य है । परन्तु बात यह चलती है कि इस वर्तमान स्थिति कौन से शास्त्र का स्वाध्याय करूँ ? बस तो वस्तु स्वरूप-दर्शक 'द्रव्यानुयोग' से स्व-पर-भेद की बात जानने के साथ-साथ, 'चरणानुयोग' से कर्त्तव्य- अकर्तव्य पहिचानने तथा अपने जीवन को शान्ति की ओर ढालने सम्बन्धी बात जाननी चाहिए । अतः 'द्रव्यानुयोग' और 'चरणानुयोग' ये दोनों ही इस दशा में तेरे लिये विशेष प्रयोजनीय हैं। चरणानुयोग की भी दो धारायें हैं- एक अन्तरंग में वैराग्य उत्पन्न करने वाली तथा दूसरी इस जीवन में बाह्य-त्यागरूप कुछ प्रेरणा देने वाली। इन दोनों में से भी पहले चरणानुयोग की वैराग्य उत्पन्न कराने वाली धारा विशेष प्रयोजनीय है, किञ्चित् वैराग्य उत्पन्न हो जाने के पश्चात् व्रतादि का उपदेश देने वाली धारा भी महान उपकारी है। यदि किसी की बुद्धि इतनी मन्द है कि वस्तु स्वरूप को समझ नसके या वैराग्य की बात जिसके गले न उतर सके तो उसके लिये प्रथमानुयोग तथा चरणानुयोग के बाह्य त्याग वाले अंग का स्वाध्याय ही कथञ्चित इष्ट है। जिसकी बुद्धि कुशाग्र है और जिसने 'द्रव्यानुयोग' व 'चरणानुयोग' को भली भाँति अवधारण कर लिया है, उसको निज कल्याणार्थ अपने सूक्ष्म-परिणामों की परख करने के लिये 'करणानुयोग' का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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