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________________ १५७ २४. गुरु-उपासना ६. सच्चे गुरु ६. सच्चे गुरु-गुरु वे होते हैं जो वीतराग व शान्त हों, जिन्हें गर्मी-सर्दी का, डांस-मच्छर का, कुत्ते-सिंह आदि क्रूर जन्तुओं का, भूख-प्यास आदि का तथा अन्य भी किसी प्रकार का भय न हो । जो सर्वत: निर्भीक वृत्ति के धारक हों, सी भी बात का शोक, खेद व चिन्ता न हो, जिन्हें लज्जा व ग्लानि आदि के भाव न आते हों, जिन्हें कभी क्रोध न आता हो, जिन्हें अपने तप का अथवा ज्ञान का अथवा प्रतिष्ठा आदि का अभिमान न हो । 'मैं इतना ज्ञानी व तपस्वी हूं, लोगों को मेरी विनय करनी चाहिये' ऐसा भाव जिन्हें न आता हो, अपनी प्रसिद्धि के लिए अथवा शिष्यमण्डली की वृद्धि के लिए मायाचारी के भाव जिनमें न हों, मेरी प्रसिद्धि व ख्याती फैलनी चाहिये, तथा मेरी शिष्य मण्डली अधिक होनी चाहिये इस प्रकार के लोभजनक भावों का जिनमें अभाव हो । इस प्रकार जिन्होंने चारों कषायों को परास्त कर दिया हो, वे वीतरागी सच्चे गुरु हैं। सारांश यह है कि वीतरागी गुरु वे हैं जो शान्ति के प्रतीक हों; कषायों व पाँचों इन्द्रियों के विजेता हों; अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह इन पाँचों महाव्रतों से सुशोभित हों, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण व उत्सर्ग इन पाँच समितिरूप कवच के धारण करने वाले हों; समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक जिनके रक्षक हों। ऐसा तो जिनका अन्तरंग जीवन हो तथा नग्नता, केश-हुँचन, अदन्तधोवन, स्नान-रहितता, एक बार भोजन, खड़े-खड़े कर पात्र में भोजन, तथा भू-शयन इन सात बाह्य गुणों के धारक हों । इन २८ मूल-गुणों सहित जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य व ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों को धारण करने वाले हों। ऐसे वीर, विजेता तथा स्वतन्त्र वैभवशाली ही सच्चे गुरु हैं, क्योंकि इनके ही अन्तरंग व बाह्य जीवन में शान्ति व वीतरागता के दर्शन होने सम्भव हैं । इन सब गुणों का विस्तार आगे साधु-धर्म के अन्तर्गत किया जाने वाला है । (दे० ३२.१)। इन गुणों के अभाव में भी यदि किन्हीं में तत्त्व दृष्टि, समता, प्रेम तथा वैराग्य का सद्भाव है तो प्राथमिक भूमिका में उनकी शरण भी कल्याणकर हो सकती है, परन्तु ऐसे गुरु अपने शिष्य को वहाँ तक ही ऊपर उठा सकते हैं, जहाँ तक कि उनका अपना स्तर है, उससे ऊपर नहीं । इसलिये उपर्युक्त गुरु की अपेक्षा इनका स्थान नीचा ही रहता है । तदपि शिष्य भी क्योंकि निम्न स्तर का है इसलिये वह उनको पूर्ण ही देखता है हीन नहीं । हीनता देखना अभिमान है जिसके सद्भाव में शिष्यत्व सम्भव नहीं। गुरु देशना को प्राप्त जीव बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् से शून्य केवल चिज्जयोति, सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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