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________________ २४. गुरु-उपासना १५६ ५. पराश्रय में स्वाश्रय भी सम्भव नहीं, न विषयों का त्याग और न तत्त्वदर्शन । फिर सहजावस्था की प्राप्ति का अर्थात् स्वाभाविक शान्ति की प्राप्ति का प्रश्न क्या ? गुरु ही परमब्रह्म हैं, गुरु ही परम तत्त्व हैं, गुरु ही परा-गति हैं, गुरु ही परम-विद्या हैं, गुरु ही परम धन हैं, गुरु ही परम-काम हैं और गुरु ही परम आश्रय हैं । देव से भी ऊपर है उनका स्थान । भगवान से भी बढ़कर हैं वे। देव को देव बताने वाले वे हैं, भगवान को भगवान बताने वाले वे हैं। यदि अपनी मधुर वाणी द्वारा वे जगत को यह रहस्य न बताते कि 'वह तो तुम्हारे भीतर ही है, भीतर भी क्या, वह तो तुम स्वयं ही हो,' तो कौन जान पाता कि भगवान कौन हैं और कहाँ रहते हैं ? भगवान बैठे रहते अपने घर में और मैं फिरा करता ढूंढता उन्हें वनों में, मन्दिरों में तथा विविध कल्पनाओं में । बने रहते वे भगवान अपने लिये परन्तु किसी को कैसे पता चलता कि ये ही हैं वे जिनकी तलाश थी मुझे "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागौं पाँय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ॥" कीचड़ से निकालकर मुँह दर मुँह वे मुझे मेरा हित न दर्शाते तो देव का परिचय भी मुझे कैसे प्राप्त होता, मैं इस उत्तम मार्ग में आकर जीवन को किञ्चित शान्त कैसे बना पाता? शान्ति की अपेक्षा देखने पर पाँचों ही परमेष्ठियों का एक स्थान है। आचार्य कुछ ऊँचे हैं, उपाध्याय कुछ नीचे हैं, अर्हन्त सबसे ऊँचे हैं इत्यादि प्रकार का भेद एक वन्दक की दृष्टि में है ही नहीं। वास्तव में वह न देव को वन्दता है और न गुरु को । उसका वन्दन तो है केवल एक आदर्श को, समता को, जो पाँचों में उसे समान दिखाई देती है। ५. पराश्रय में स्वाश्रय-किसी को पूजने में व्यक्ति का कोई न कोई लक्ष्य तो होता ही है। इसीलिए धन का इच्छुक जो लक्ष्मी को पूजता है, बही, बाट, तराजू, गज़ आदि को पूजता है, सो वृथा नहीं पूजता, क्योंकि उसके अन्तरंग में धन-प्राप्ति का लक्ष्य है । इसी प्रकार पंच-परमेष्ठी की पूजा में भी मेरा कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होना चाहिए। वह लक्ष्य क्या है? “तू चैतन्य पदार्थ है, ये सब स्त्री-पुत्र, धन-धान्यादि तुझसे भिन्न हैं, शरीर तथा राग-द्वेषादि यहाँ तक कि यह लौकिक पर्याय भी किसी अपेक्षा पर है. ज्ञान में इनका आश्रय आने पर कछ रागात्मक विकल्प उठे बिना नहीं रहते। अत: इनका आश्रय छोड़े बिना शान्ति मिलनी असम्भव है।" इस प्रकार एक ओर तो पर-तत्व को छोड़ने का उपदेश दिया जा रहा है, उसे अनिष्ट बताया जा रहा है और दूसरी ओर देव व गुरु का आश्रय लेने की, उनकी पूजा, वन्दना आदि करने की प्रेरणा दी जा रही है। क्या देव व गुरु 'स्व' हैं? ये भी तो पर हैं, फिर उस ही का निषेध और उसी का ग्रहण, कैसी अजीब बात है जो समझ में नहीं आती । सो भाई ! ऐसी बात नहीं है, पर-तत्त्व का आश्रय तो सदैव अशान्ति का ही कारण है और हमारा कर्त्तव्य एक मात्र निज शान्ति में ठहरना है, परन्तु क्या करें अल्प-दशा में यह सम्भव नहीं दीख रहा है। पूर्व के प्रबल संस्कार वश अधिक देर शान्ति में स्थिरता रहती नहीं, पुन: पुन: लौकिक पर-पदार्थों की ओर उपयोग भागने का प्रयत्न करता है, इसलिये यदि पर-तत्त्व का ही आश्रय लेना है तो किसी ऐसे का ले जिससे कि लौकिक-तीव्र-रागात्मक विकल्प न उठ पावें, विकल्प ही उठे तो शान्ति सम्बन्धी उठे। इसी लक्ष्य की सिद्धि के लिये शान्ति को प्राप्त किन्हीं पर-तत्त्वों का आश्रय लेने के लिये कहा जा रहा है। लौकिक-पर-पदार्थों का आश्रय पराश्रय के लिये होता हैं, इनमें-से रस लेने के लिये होता है, परन्तु यह आश्रय पराश्रय छुड़ाने के लिये है। गुरु समता तथा प्रेम की मूर्ति है । उनके रोम रोम से हृदयोत्कर्ष का यह महा स्पन्द दशों दिशाओं में प्रसारित हो रहा है। इसलिये उनके सानिध्य से मेरे हृदय में भी वैसा ही स्पन्द उठता प्रतीत होता है। हृदय को आलोकित करने वाला मेरा यह अभ्यन्तर स्पन्द क्योंकि मझे समता की याद दिलाता है, शान्ति के दर्शन कराता है इसलिये यह 'पर' का आश्रय भी 'स्व' के आश्रय के लिये ही है । भविष्य की बात नहीं वर्तमान में ही उसके आधार पर मैं अधिकाधिक स्व की ओर झुकता प्रतीत होता हूँ, अत: बाह्य में देव व गुरु का आश्रय अन्तरंग में निज शान्ति का ही आश्रय है। दोनों क्रियायें साथ-साथ चल रही हैं-लौकिक-पर-पदार्थों से बाह्य-निवृत्ति, देव गुरु में बाह्य-प्रवृत्ति, देव गुरु से अन्तरंग निवृत्ति, स्व-शान्ति में अन्तरंग-प्रवृत्ति । निवृत्ति व प्रवृत्ति दोनों मार्गों का कितना सुन्दर समन्वय है ? यही है पंच-परमेष्ठी की पूजा या उपासना में मेरा स्वार्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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