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२४. गुरु-उपासना
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४. आदर्श उपासना
शान्ति से चिन्तवन में निजानन्द-रसपान किया करते हैं। आप के साहस को देखकर जन-सामान्य को कम्पा देने वाला तुषार स्वयं कम्पायमान हो गया है आज। वह भागा जा रहा है न जाने किस ओर? आपके प्रहार से मानो भयभीत हो आज खण्ड-खण्ड होकर हिम के रूप में आपके चरणों में आ पड़ा है वह।
इस प्रकार के भावों से गुरु का स्वरूप देखकर, अपनी शक्ति की स्वीकृति है उनके निकट बैठना अर्थात् गुरु-उपासना । यदि इस प्रकार करूँ और करता चाला जाऊँ तो क्या समझ न पाऊँगा कि मेरे लिये भी वैसा बन जाना सम्भव है, और क्या ऐसा करने से मेरी गति इस मार्ग में और न बढ़ेगी? इस उपासना के प्रताप से मेरा लक्ष्य और निकट आ जाएगा। अत: हे कल्याणार्थी ! हे शान्तिपथ के पथिक ! राग की शरण को छोड़कर अब गुरु की शरण में आ।
यह तो है गुरु-उपासना का पारमार्थिक स्वरूप, और इनकी मानसिक, वाचिक व कायिक विनय है उसका व्यावहारिक स्वरूप । मन में उनके प्रति उपर्युक्त प्रकार से बहुमान जागृत करना है गुरु की मानसिक विनय, और शब्दों द्वारा उस मनोगत बहुमान को प्रकट करना अर्थात् उनका स्तवन करना है उसकी वाचिक विनय । कायिक विनय के अन्तर्गत हैं अनेकों क्रियायें । गुरु को दण्डवत् प्रणाम करना, उनके आने पर खड़े हो जाना, उन्हे उच्चासन प्रदान करना, पादप्रक्षालन करके उसे मस्तक पर चढ़ाना, अर्घा-अर्पण करना, वे चलें तो नतमस्तक उनके पीछे-पीछे चलना, किसी से बात करें तो बीच में न बोलना, कोई बात पूछनी हो तो अत्यंत विनम्र भाव से हाथ जोड़कर पूछना उद्दण्डतापूर्वक नहीं, स्वयं समझने के लिये पूछना दूसरों को समझाने के लिये नहीं इत्यादि । ये क्रियायें ही हैं इनकी व्यावहारिक उपासना । अथवा बहश्रत होते हये भी अल्पश्रत गरु के समक्ष अपने को तच्छ मानना है उनकी मानसिक विनय, 'सब आपका कृपा-प्रसाद है' इस प्रकार कहते हुए अपने सकल गुणों का कारण उनको और सकल दोषों का कारण अपने को मानना तथा बताना है उनकी वाचिक विनय, और शरीर द्वारा पुन:-पुन: नति करते हुये अपने को उनके चरणों में अर्पण करना है उनकी कायिक विनय । 'विनय के अभाव में गुरु से कौन क्या प्राप्त कर सकता है,' अभिमान का सिर नीचा होता है, ये सब बातें आगे 'उत्तम तप' के अन्तर्गत 'विनय' नामक तप के प्रकरण में बताई जाने वाली हैं । (दे० ४०/३.२)
शान्ति के पूर्ण आदर्श होने के कारण देव तो वन्दनीय तथा पूज्य हैं ही, परन्तु गुरु भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं। भले ही भीतर में कोई सूक्ष्म अन्तर हो तो हो परन्तु बाहर से देखने पर दोनों समान हैं। गुरु कृपा के बिना कुछ
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धन्य है आपका वीरत्व, अन्तरंग तथा बहिरंग कोई भी । IYA | शत्र जिसे परास्त करने को समर्थ नहीं। -
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