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२३. देव-पूजा
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६. शंका समाधान
चलिये वन में खोजें । आहा ! कैसा रमणीक व सुन्दर स्थान है ? यहाँ ही तो देखा था मैंने अपने प्रभु को बैठे हुए। बड़ा शान्त है, प्रकृति ने मानो अपनी विशाल गोद ही फैलाई है, नगर व ग्राम की सीमा तक मुझे आश्रय देने लिये । बहुत शान्त वातावरण है। इससे अच्छा और क्या हो सकता है। जहाँ आते ही मैं भूल जाता हूँ सर्व कुटुम्ब को, धन को, यहाँ तक कि शरीर को भी, और खो जाता हूँ प्रकृति की सुन्दरता में, उस स्वाभाविक व शाश्वत् सुन्दरता में जिसे रचने का या नवीन बनाने का विकल्प भी मुझे नहीं आ सकता । बस अपने प्रभु की प्रतिमा को यहाँ ले आऊँ और कर दूँ विराजमान किसी वृक्ष के नीचे एक शिलापर या किसी मिट्टी के चबूतरे पर। यह प्रतिमा के दर्शन करने में मेरी बहुत सहायता करेगा और इसी कारण बन गये चैत्यवृक्ष, जिसकी ओर गुरु देव पुनः-पुनः संकेत कर रहे हैं, इस आगम में । चैत्यवृक्ष अर्थात् प्रतिमा रखी गई हो जिस वृक्ष के नीचे । प्राचीन समय में चैत्यवृक्ष ही हुआ करते थे, जहाँ जाकर मैं कुछ देर के लिये भूल जाता था सब चिन्तायें और लीन हो जाता था प्रभु की शान्ति में जैसा कि पहले के प्रकरण में बता दिया गया है I
यह समय वह था जब कि मैं छोटे-छोटे गाँवों में रहा करता था, दो फर्लांग चला कि चैत्यवृक्ष पर पहुँच गया । फ़ालतू समय भी काफ़ी होता था। सौ पचास छोटी-छोटी झोपड़ियों का ग्राम होता ही कितना बड़ा है ? चारों ओर वन ही न पड़ा है और हैं हरे-हरे खेत । परन्तु समय ने पलटा खाया और आज मैं रहता हूँ बड़े-बड़े नगरों में, जहाँ से यदि कई मील चल दिया जाय तो भी मैं वन में प्रवेश न कर सकूँगा । सड़कों आदि पर बड़ा व्याकुल सा वातावरण रहता है। और आज इतना समय भी तो नहीं है मेरे पास कि मीलों चला जाऊँ वन में भगवान के दर्शन व पूजा करने, और घर पर लौट आऊँ । सम्भवत: आधा दिन लग जाय इस काम में। फिर मैं गृहस्थी; भला कैसे दे सकता हूँ इतना समय ? यदि गुरुदेव की प्रेरणा से या अन्तष्करण की प्रेरणा से कुछ समय निकालने का प्रयत्न भी करूँ तो बड़ी कठिनाई से १५ मिनिट या आधा घण्टा । और फिर इतना समय भी फ़ालतू कहाँ है आज मेरे पास ?
वन को अनुकूल वातावरण के रूप में प्रयोग करना आज असम्भव है। अतः कोई अन्य कृत्रिम मार्ग निकालना पड़ेगा, जो भले ही उतना सुन्दर व स्वाभाविक न हो पर जिस-किस प्रकार भी वहाँ मेरे प्रयोजन की सिद्धि कुछ हो सके, और निकल ही आया एक उपाय । नगर ही में एक पृथक् स्थान या मन्दिर बना डालो और उसके अन्दर घर सम्बन्धी कोई सामान न रखो । वहाँ हो मेरे प्रभु की प्रतिमा शान्ति के दर्शन के लिये । मन्दिर की दीवारों के दूसरी ओर भले पड़ा रहे नगर का व्याकुल वातावरण, परन्तु उसके भीतर हो केवल एक शान्ति ही शान्ति । चहुँ ओर दीवारों पर खिंचे हों या तो प्राकृतिक दृश्य, या शान्त महापुरुषों के चित्र और या हों शान्ति के उत्पादक कुछ गुरु वाक्य, ताकि इस स्थान में आकर जिधर भी दृष्टि उठाऊँ दिखाई दे एक शान्ति । इसे कहते हैं मन्दिर अर्थात् शान्ति का घर । यद्यपि आज इस विलासिता के युग में आकर इसमें भी विलासिता का विषैला अंश प्रवेश पा गया है, सोने चाँदी की अधिकाधिक सामग्री के रूप में, कुछ बर्तनों के रूप में, छत्र- चमरों के बड़े संग्रह के रूप में, फरनीचर के रूप में, परन्तु फिर भी यहाँ अन्यत्र की अपेक्षा शान्ति है । कर्त्तव्य तो यह है कि इस विषैले अंश को यहाँ से निकालने का प्रयत्न करूँ, और कर भी रहा हूँ, कुछ सफलता भी मिली है। अब यहाँ नवीन आदर्श-मन्दिरों की स्थापना की जा रही है, जहाँ न स्वर्ण का छत्र है, न चमर, न बर्तन भांडों की खड़खड़ाहट, न अधिक चौकियों आदि का संग्रह, न अधिक प्रतिमायें, न लौकिक आकर्षण । har एक विशाल प्रतिमा है और एक बड़ी टेबल तथा बैठने के लिये कुछ आसन । यह है मेरे प्रयोजन की सिद्धि में
सहायक शान्त वातावरण ।
प्रभु को तो कुछ नहीं, वे तो वीतराग हैं, कहीं भी बैठा दो ले जाकर, निश्चय व निर्विकल्प ही रहते हैं। पूर्ण जो हो गये हैं ? परन्तु प्रभु मन्दिर में ये विलासिता के अंश अनेक प्रकार के विकल्प पैदा करते हैं मेरे मन में। मैं तो अभी चलना भी नहीं सीखा हूँ । इसी कारण मन्दिर में विलासिता का दृश्य खटकने लगता है आँखों में, सो ठीक ही है, फिर भी अपना काम निकालना है। यदि आदर्श-मन्दिर उपलब्ध हो जाय तो बहुत अच्छा, नहीं तो इन मन्दिरों से ही काम चलाओ । जरा अधिक बल लगाना पड़ेगा, इस रूप में कि दृष्टि के सामने पड़े आकर्षक पदार्थों की ओर मेरा ध्यान खिंचने न पावे, परन्तु घर व दुकान आदि से फिर भी अच्छा है। अनेकों अन्य विकल्पों से तो छुट्टी मिलती ही है। दो
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