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२३. देव-पूजा
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६.शंका समाधान बैठता। (देखो १५.२) बस उसी प्रकार यहाँ भी समझना। आगे तप के प्रकरण में इस बात को सविस्तार बताया जाएगा कि कोई भी संस्कार क्रमपूर्वक ही तोड़ा जाता है । जब तक संस्कार समूल नष्ट नहीं होगा तब तक उससे प्रेरित हुआ मैं नित्य नये-नये विकल्प भी छोड़ न सकूँगा। रोगी का रोग एकदम दबाया नहीं जा सकता, क्रमपूर्वक और धीरे-धीरे ही दबाया जा सकता है, उसी प्रकार विकल्प दबाने के सम्बन्ध में भी समझना।
इन विकल्पों में सर्वदा के लिए तो क्या, कुछ देर के लिए भी पूर्णतया ब्रेक नहीं लगाया जा सकता। हाँ इतना अवश्य है कि इन्हें कछ देर के लिए किसी प्रकार दबाया जा सकता है. जिस प्रकार कि मारफीन या कोकीन के इन्जैक्शन द्वारा कुछ देर के लिए पीड़ा दबाई जा सकती है । अब मुझे यह देखना है कि कुछ देर के लिये ही सही, वह क्रिया-विशेष कौन सी है जिसके करने से कि वे विकल्प दब सकें। अनेकों बार जब कि मैं क्रोध में अत्यन्त व्याकुल हुआ अन्दर ही अन्दर कुछ जलन सी महसूस करता हूँ, मैंने यह अनुभव किया है कि ऐसे अवसरों पर यदि मैं घर या दुकान आदि का वातावरण छोड़कर क्लब में जाकर खेलने लगूंगा तो धीरे-धीरे वह क्रोध शान्त हो जाता है और उस समय तक पुन: जागृत नहीं हो पाता जब तक कि पुन: उसी प्रकार का कोई अन्य वातावरण मेरे सामने न बन जाय । बस इसी अपने अनुभव पर से सिद्धान्त निकाल लीजिए।
सिद्धान्त यह निकला कि बाह्य-वातावरण का मेरे विचारों के साथ बहुत बड़ा सम्बन्ध है। जब जुआरियों के वातावरण में रहकर मैं जुआरी और शराबियों के वातावरण में रहकर शराबी बन सकता हूँ तो निर्विकल्प वातावरण में रहकर मैं निर्विकल्प क्यों नहीं बन सकता? यद्यपि स्वपर-भेद-विज्ञान के अन्तर्गत वस्तुत: इसका निषेध किया गया है,
और बताया गया है कि अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता और इस बात पर मुझे विश्वास भी है, युक्ति आदि से निर्णय भी किया है, परन्तु अभी तक वह विश्वास पूर्णतया मेरे जीवन में उतरने नहीं पाया है। पूर्व वाला पराश्रित हो जाने का संस्कार अभी दृढ़ है। यद्यपि गलती मेरी है, पर करता हूँ मैं किसी वातावरण से प्रभावित होकर ही । जो बात स्पष्ट अनुभव में आती हो, उसमें नकार कैसा?
विकल्प को दबाने के दो उपाय हैं। एक तो यह कि स्वपर-भेद ज्ञान के द्वारा मैं जहाँ कहीं बैठं दृढता धार कर वातावरण की और दष्टि न दं और अपने शान्त-स्वभाव को लक्ष्य में लेकर अन्तरंग में एक नया वातावरण उत्पन्न कर लूं । यह उपाय करने बैठता हूँ तो वर्तमान की इस प्राथमिक अवस्था में अपने को बिल्कुल असमर्थ पाता हूँ, क्योंकि बात को समझना सरल है पर उसको कार्यान्वित रूप देना कुछ कठिन । समझने व श्रद्धा करने में अधिक समय नहीं लगता, पर उसे पूरा करने को एक लम्बा समय चाहिए। उपाय ऐसा होना चाहिए जो इस अत्यन्त निम्न अवस्था में भी किया जा सकना सम्भव हो, और मेरी शक्ति से बाहर न हो।
कुटुम्ब-सम्बन्धी चिन्ताओं से कुटुम्ब के वातावरण में रहकर, धनोपार्जन-सम्बन्धी चिन्ताओं से दुकान पर रहकर, और शरीर-सम्बन्धी चिन्ताओं से शरीर की सेवा में संलग्न रहकर, बचने का प्रयास करते हुए भी बचा नहीं जा सकता। अत: इस निश्चय के आधार पर वातावरण बदल देना चाहिए । अब विचारना यह है कि इसको छोड़कर किस वातावरण में जाऊँ ? क्या क्लब में जाने से काम चल जायेगा? नहीं क्योंकि वहाँ भले कुटुम्बादि-सम्बन्धी विकल्प दब जायें पर हार-जीत सम्बन्धी नये विकल्प उत्पन्न हो जाएंगे। अत: वातावरण ऐसा होना चाहिए कि जहाँ जाकर यदि विकल्प भी उत्पन्न हों तो वीतरागता-सम्बन्धी ही हों । सौभाग्यवश शान्ति के आदर्श जीवित देव या उनकी प्रतिमा की शरण में जाने से यह प्रयोजन ठीक-ठीक सिद्ध हो जाता है, जैसा कि इससे पहले के प्रकरण में दर्शा दिया गया है। इन दोनों में भी देव की शरण का तो प्रश्न नहीं क्योंकि वर्तमान में कहीं दिखाई ही देते नहीं, किन्तु उनकी प्रतिमा अवश्य सौभाग्यवश प्राप्त है । अत: प्राप्त साधन से ही कुछ लाभ लेना है।
अब यह विचारिये कि यदि यह प्रतिमा घर पर ही रख लूँ तो क्या वह वातावरण छोड़कर नया वातावरण बनाया जा सकेगा? यह बताने की आवश्यकता नहीं कि नहीं बनाया जा सकेगा। एक ओर स्त्री की नई-नई मांगे, एक ओर वृद्ध माता-पिता की कराहट, एक ओर बच्चों की चीख-पुकार, इन सबके होते हुए प्रतिमा के सामने खड़े हुए भी मेरा उपयोग उनकी उपासना में कैसे लग सकेगा ? अत: कोई अन्य उपयुक्त स्थान ढूंढना होगा।
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