________________
२३. देव-पूजा
१४५
६.शंका समाधान
प्रतिमा न थी, थे साक्षात् गुरु-द्रोण । प्रतिमा से ही पूछ-पूछकर करने लगा धनुर्विद्या का अभ्यास । स्वयं अपने ही हृदय से प्रकट होने वाले लक्ष्य-साधन के उपायों को यदि पहले से ही मान बैठता अपने, तो अभिमान हो जाता । 'गुरु-द्रोण ही क्या करेंगे इसमें, मैं स्वयं ही सीख लूंगा' ऐसा भाव आ जाता, और कभी न सीख पाता वह विद्या । परन्तु उसके हृदय में यह विकल्प था ही नहीं, उसकी दृष्टि में तो थी गुरु की विनय । लक्ष्य चूक जाने पर गुरु से अर्थात् प्रतिमा से क्षमा मांग लेता और लक्ष्य सफल होने पर उसके चरण छू लेता । वर्षों बीत गये इसी प्रकार करते पर एक क्षण को भी उसने उसे प्रतिमा के रूप में न देखा । वे थे उसके साक्षात् गुरु और एक दिन सिद्धहस्त हो गया वह, अर्जुन की विद्या को भी शर्मा देने वाला।
अर्जुन से यह कैसे सहा जा सकता था कि गुरु-द्रोण का शिष्य इस निगुरे भील से नीचा रह जाए ? नहीं, यह नहीं हो सकता । गुरु से जाकर कह ही दिया। गुरु आये और भील से पूछा, किन से सीखी है विद्या ? गुरु को साक्षात् सामने देखकर लेट गया उनके चरणों में । “आहा हा ! आखिर चले आये आप खिंचे हुए ? भक्ति में इतनी सामर्थ्य है। भगवन् ! और कोई नहीं आप ही हैं मेरे गुरु", यह था भील का उत्तर । गुरु-द्रोण आश्चर्य में डूब गये। यह बात सत्य कैसे हो सकती है, क्योंकि उन्होंने तो उसे विद्या देने से इन्कार कर दिया था ? नहीं, मैं नहीं हो सकता, यह झूठ बोलता है, छिपाना चाहता है अपने गुरु का नाम मुझसे । भील ताड़ गया गुरु के मन की बात और ले गया उनको प्रतिमा के पास । 'यदि विश्वास न आता हो तो देख लीजिये, ये बैठे हैं मेरे गरु,' और गरु द्रोण पर खल गया सारा रहस्य, जड़-प्रतिमा क्या दे सकती है और किस प्रकार दे सकती है, यह रहस्य।
भो कल्याणार्थी ! अब पक्षपात् तज, किसी दूसरे के लिये नहीं अपने लिये । 'मेरे मन में हैं भगवान, क्या करूंगा प्रतिमा के दर्शन करके' ऐसा बहाना छोड़ दे। स्वयं तेरी शान्ति का घात कर रहा है यह, क्योंकि अब तक तूने भगवान के दर्शन किये ही कब हैं जो तेरे हृदय में उनका वास सम्भव हो जाता। भगवान शब्द का नाम भगवान नहीं। भगवान जीवन का एक आदर्श है जो तू इस प्रतिमा में पढ़ सकता है या साक्षात् भगवान में । भगवान वर्तमान में हैं नहीं, अत: उनके प्रतिनिधि-रूप इस प्रतिमा की अब शरण ले और अपना कल्याण कर।
(१०) मन्दिर विषयक–देव-पूजा की बात चलती है, देव का व पूजा का स्वरूप दर्शाया जा चुका। अब प्रश्न यह होता है कि 'मन्दिर की क्या आवश्यकता ?' प्रश्न बहुत उत्तम व स्वाभाविक है, ऐसे प्रश्न उत्पन्न करते समय यदि भय लगेगा तो तत्त्व नहीं समझा जा सकेगा। जैसे मैं कहूँ वैसे स्वीकार कर लेना वास्तव में समझना नहीं है । देख इस प्रश्न का उत्तर स्वयं अपने अन्दर से ही आ जाता है।
'मुझे शान्ति चाहिए' यह समस्या है, इस समस्या को सुलझाने का अब प्रश्न है । शान्ति प्राप्त करने से पहले यह जानना आवश्यक था कि शान्ति क्या है, और इसका घात करने वाला कौन है ? सो भी जाना जा चुका कि शान्ति मेरा स्वभाव है, और इसका घात करने वाला मेरा अपना ही अपराध है जो आस्रव-तत्त्व में दर्शा दिया गया है, अर्थात् शरीर, धन व कटम्बादि सम्बन्धी अनेकों नित्य नये-नये उठने वाले विकल्प, इच्छायें व चिन्तायें। यदि ये विकल्प दब जायें तो मैं शान्त पहले ही से हैं। वास्तव में शान्ति प्राप्त नहीं करनी है बल्कि अशान्ति को दर करना है. इन चिन्ताओं को. इन इच्छाओं को, इन विकल्पों को दूर हटाना है । ये दूर हुए कि शान्त तो मैं हूँ ही, वह तो स्वभाव जो ठहरा मेरा । प्राप्त की प्राप्ति क्या? जो पहले ही से मेरे पास है उसको प्राप्त करने का प्रयास क्या? स्वभाव का कभी विच्छेद नहीं हुआ करता। क्या अग्नि से गर्म हो जाने पर जल अपना शीतल स्वभाव छोड़ देता है ? नहीं। तो मैं ही इन विकल्पों के कारण व्याकुल होता हुआ अपनी शान्ति कैसे छोड़ सकता हूँ ? अत: जिस-किस प्रकार भी इन विकल्पों का अभाव करने का प्रयास करना है।
अब विचारना यह है कि क्या एकदम इन विकल्पों को रोका जाना सम्भव है ? जैसे कि बिजली का बटन दबाया और प्रकाश बन्द, क्या इस प्रकार 'कोई क्रिया विशेष करी और विकल्प बन्द', ऐसा होना सम्भव है ? ऐसी बात यहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि प्रारम्भ में ही आस्रव-बन्ध तत्त्वों के अन्तर्गत इन विकल्पों व संस्कारों के जन्म का क्रम दर्शाते हुए यह बताया जा चुका है कि संस्कार धीरे-धीरे ही शक्ति पकड़ता हुआ एक दिन पुष्ट हो जाता है, एकदम पुष्ट नहीं हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org