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२३. देव-पूजा
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६. शंका समाधान
लोकों को तीनों कालों में प्रत्यक्ष देख रहे थे, अपने हृदय पट पर । वह अलौकिक तेज जिसमें कि मुझे भी दिखाई देने लगे थे अपने सात भव । आहा हा ! कैसी महिमा थी उस समय भगवान की, मानो तीन लोक की सम्पत्ति ही सिमट आई थी उनके चरणों में । मैं तो क्या सहस्र जिह्वा भी उसका वर्णन करने को समर्थ नहीं। और अन्त का वह दिन जब भगवान विदा ले रहे थे हम सब से, सदा के लिए ? मानो अनाथ बना चले थे हम सब को। मैं रो रहा था उस समय न जाने क्यों ? सम्भवत: इस लिए कि मैं भी कभी ले सकूँगा ऐसी विदा।
और आज वही प्रभु हैं मेरे सामने । मानो इस अनाथ की सुध लेने आये हैं कि भूल न बैठा हो कहीं उस अन्तिम रुदन के भाव को, और वास्तव में था भी वैसा ही । प्रभु से क्या छिपा है ? मैं तो भूल ही बैठा था सब कुछ, यहाँ तक कि प्रभु भी पाषाण दिखाई देने लगे थे अब मुझे। सोते को जगा दिया प्रभु ने । भगवन् आप न आते तो न जाने क्या होता मेरा? इस भव में अपने हाथों से की हुई सब क्रियाओं को, अपनी आंखों से देखे हुए सब दृश्यों को, अपने कानों से सुने हुए सब शब्दों को इसी भव में भूल गया। यदि आज आपके दर्शन न होते तो आगे क्या होता? तभी तो कहते हैं आपको करुणासिन्धु, भक्त प्रतिपालक, अधमोद्धारक।
अरे भोले प्राणी ! क्या अब भी समझ न पाया कि 'क्या देती है यह सामर्थ्यहीन प्रतिमा और कैसे देती है ?'
(९) कितनी सामर्थ्य है दृष्टि में आने वाली इस पाषाण की मूर्ति में ? भावना शून्य तुझे दिखाई ही कैसे देगी वह सामर्थ्य ? पक्षपात् के गहन अन्धकार में मुन्द गई हैं तेरी आंखें । उपरोक्त प्रकार तन्मय होकर शान्ति के दर्शन करे तब पता चले कि क्या देती है यह प्रतिमा, कितनी सामर्थ्य है इसमें । ठीक है यह अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकती क्योंकि जड़ है, परन्तु तेरी रक्षा अवश्य कर सकती है। हाथ कंगन को आरसी क्या? करके देख उपरोक्त प्रकार इसके दर्शन । यह अपनी रक्षा नहीं करती तो क्या आश्चर्य, वे जीवित प्रभु भी तो जिनकी कि यह आकृति है स्वयं नहीं करते थे अपने शरीर की रक्षा । अनेक शक्तियों व ऋद्वियों के भण्डार होते हुए भी, इस पृथ्वी को एक अंगुली पर घुमा देने की शक्ति रखते हुए भी वे नहीं करते थे स्वयं अपने शरीर की रक्षा । वे नित्य जागृत रहा करते थे अपनी रक्षा के लिये, और यह प्रतिमा भी बराबर कर रही है अपनी रक्षा उन्हीं की भाँति।
प्रभु ! इस अन्धकार में तुझे कैसे सूझे कि किसे कहते हैं अपनी रक्षा ? एक ओर कह रहा है शरीर और आत्मा भिन्न है और दूसरी ओर कह रहा है कि शरीर की रक्षा ही मेरी रक्षा है । भला कहाँ है विश्वास तुझे स्वयं अपनी बात पर ? प्रभु का विश्वास तुझ जैसा पोच न था, वे दृढ़ थे इस बात पर कि वे चैतन्य हैं। अन्य कुछ नहीं, शरीर का उनके साथ कोई नाता नहीं, तनिक भी। फिर बता इसकी रक्षा वे क्यों करते? और कदाचित् उपकार- र भी देते, यदि इसकी रक्षा करते हुए स्वयं अरक्षित न हो जाते वे । समझ भगवन् समझ, शरीर की रक्षा क्या बिना इसके प्रति राग आये सम्भव है ? और राग आने पर क्या शान्ति सुरक्षित रह सकती है, वह शान्ति जिसके लिये कि इतना पुरुषार्थ किया है उन्होंन? तो फिर बता शरीर की रक्षा के लिये अर्थात् एक ऐसी वस्तु की रक्षा के लिये जो उनके लिये उस समय बिल्कुल निष्प्रयोजन बन चुकी थी, राग उठाकर अपनी शान्ति का घात करना, निधि लुटा देना अपने हाथों अपने घर में आग लगा लेना, कौन बुद्धिमत्ता थी, और प्रभु ऐसी मूर्खता करते ही क्यों? बस वही आदर्श तो उपस्थित कर रही है यह प्रतिमा भी। निश्चलध्यान-अवस्था में स्थित, अन्तर तथा बाह्य-विकल्पों से रहित उस समय प्रभु भी तो जड़वत् दीखते थे? क्या भूल गया उस दिन को जब अपने मुँह से उस महायोगी को जड़-भरत कहकर पुकारा करता था ? यदि यह प्रतिमा ही जड़वत् दीखती है तो क्या आश्चर्य हुआ।
देख प्रतिमा सम्बन्धी महाभारत का प्रसिद्ध दृष्टान्त । भले ही नीच कुल होने के कारण अथवा यह सोचकर कि 'मेरे द्वारा सिखाई गई धनुर्विद्या का दुरुपयोग न हो जाय, इसका प्रयोग पशु-हिंसा के प्रति न हो जाय' गुरु-द्रोणाचार्य ने उस भील को धनुर्विद्या देने से इन्कार कर दिया था, पर उसकी दृष्टि में तो उसके गुरु बन चुके थे वे । भले वे उसे अपना शिष्य स्वीकार न करते पर उसकी भावना कैसे बदल सकते थे ? 'प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही, धनुर्विद्या अवश्य सीखूगा' ऐसे दृढ़ संकल्प वाले उस भील ने वन में जाकर कच्ची मिट्टी से बनाई द्रोणाचार्य की प्रतिमा और एक गुफा के मुख पर बड़ी विनय से विराजमान कर दिया उसे । तीन समय पुष्प चढ़ाता था उसके चरणों में । उसकी दृष्टि में वह
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