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२३. देव-पूजा
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६.शंका समाधान को भी कुछ चैन-सी पड़ जाती है ऐसे समय में । त्रिलोक-तृप्तिकर यह अमृतगंगा । अरे मन ! तनिक अपना ढकना तो खोल और ले इस गंगा को समा ले अपने में । याद रख, फिर न मिलेगी इसकी शीतल धारा, तरसता रह जायेगा। बहुत स्थान है तेरी गहनता में, सबकी सब समाले अपने अन्दर, देख एक बून्द भी न बिखरने पाये । और ले अब बेसुध होकर करने लगा मैं अमृत का पान, करने लगा भगवान से बातें।
भगवानक्या देखा तूने अधरों में ?
एक शान्त-मुस्कान। क्या देखा तूने नेत्रों में ?
इस ही का सम्मान। क्या देखा कर-कमलों में ?
लक्ष्य-सिद्धि आल्हाद । क्या सुनता है इन कानों में ?
मधुर-तृप्ति का नाद। क्या देख रहा मेरे मन में ?
शान्ति-सखी का नृत्य। क्या दीख रहा तुझको तन में ?
शान्ति नगर का दृश्य। आओ सखा ! इस शान्ति-नगर के
आता हूँ भगवन् ! रुक जाओ, क्षण भर यात्री बन जाओ?
लो हाथ पकड़कर अपनाओ। कैसा लगता है अब तुझको?
मैं तुम एक हुए मानो। कुछ इच्छा है तो कह डालो?
क्या कहूँ नाथ ! अब मत बोलो। क्या कह रहा है यह वन्दक ?
होंगे कोई मुझे क्या इनसे। जा-जा, इनकी कुछ तो सुनले।
इनका नाता ही क्या मुझसे ? कुछ इच्छा है तो अब भी कह दे।
बस प्रभु मैं तृप्त हो गया, कृतकृत्य हो गया। नेत्र बन्द किये मानो मैं प्रभु में मिल चुका था, दीन-दुनिया से दूर हो चुका था। मैं था और थे मेरे शान्ति आदर्श वीतराग-प्रभु । और फिर वही ? अरे मन ! तेरा भला हो, तू अपनी चञ्चलता से बाज न आया ? आखिर वही किया जो तुझे करना था ? घसीट ही लिया मुझे ? अच्छा कर ले जो कुछ करना है, अपनी बदकारी में कमी मत रख, सब अरमान निकाल ले। आखिर कब तक? एक दिन बिदा लेनी ही होगी तुझे । बाँध ले अपना बिस्तरा-बोरिया । अब अधिक दिन नहीं निभेगा मेरा साथ । मेरा रास्ता यह और तेरा रास्ता वह । प्रभु को भुला देना तो अन तेरी सामर्थ्य से बाहर हो चुका है, क्योंकि अब मैं कर चुका हूँ प्रतिमा में जीवित-देव के दर्शन, अब मेरे लिए वे पाषाण नहीं भगवान हैं।
(८) अब तक भले भूल रहा हूँ पर अब मुझे 'पंच-कल्याणक विषयक' सब पिछली बातें याद आ गई हैं। वह दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम रहा है, जब कि प्रभु ने माता की कोख में प्रवेश किया था। मेरे सामने ही इनका जन्म हुआ था। वह दिन भी मुझे अच्छी तरह याद है जब कि इनका राजतिलक हुआ था, और इनकी प्रजा का एक अंग बनकर मैं सुखपूर्वक जीवन बिताता था। आहा हा ! वह दिन तो मानो कल ही गुजरा है। क्या दृश्य था वह ? चहुँ ओर वैराग्य व वीतरागता, लौकान्तिक देवों का वह सम्बोधन मेरे कानों में आज भी गूंज रहा है। प्रभु को वैराग्य आ गया था उस दिन, राजपाट को ठकरा. नीची गर्दन किए वन की ओर चल पड़े थे वे । मुझसे रहा न गया, पालकी उठा लाया, प्रभु को बैठाया और ले चला कुछ दूर अपने कन्धों पर । ओह ! कितना उत्साह था उस दिन मुझ में, जैसे कि आज ही घर छोड़कर चल दूं प्रभु के पीछे । पर मेरा दुर्भाग्य, मैं न जा सका । प्रभु चले गये और मैं देखता ही रह गया। कितनी उदासीन थी सारी प्रजा? पर प्रभु प्रसन्न थे, शान्त थे, मानो चले हों किसी स्वयंवर में।
यह दश्य तो मानो मेरी आंखों के सामने ही हो रहा है। देखो-देखो, क्या नहीं दीख रहा है तम्हें ? लो इन
यह आँखों से देखो, वे प्रभु बैठे किस तरह घासफूस की भाँति अपने केश नोच-नोचकर फेंक रहे हैं, और मैंने इन हाथों से समेटे थे उनके वे केश। ध्यान में निश्चल हुए वे योगी यही तो हैं जिनके शरीर पर खाज खुजाता हुआ एक मृग मैंने देखा था। और वह दृश्य जब तीनों लोक झंकार उठे थे, चहुँ ओर युगपत् गूंजने वाली दुन्दुभि-बाजों की ध्वनि मानो आकाश को फाड़ने का प्रयत्न कर रही थी ? उस दिन उत्पत्र हुआ था भगवान को वह ज्ञान जिसके प्रकाश में वे तीनों
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