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२३. देव-पूजा
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६.शंका समाधान इस सत्य के प्रति नकार क्यों ? प्रतिमा के प्रभाव व कल्पनाओं की शक्ति के प्रति आज जो नकार तुझे वर्त रहा है उसके पीछे कोई पक्षपात् छिपा बैठा है, कोई सम्प्रदाय पुकार रहा है । तू एक वैज्ञानिक बनकर निकला है, साम्प्रदायिक नहीं । एक वैज्ञानिक है तो पक्षपात को अब धो डाल और इस मनोविज्ञान से कुछ लाभ उठा।
आज तक इस मनोविज्ञान का दूसरी दिशा में प्रयोग करता आया है, आज उसी का प्रयोग इस दिशा में कर । देख तुझे साक्षात् देव के दर्शन होते हैं, शान्ति के दर्शन होते हैं। आज तक वैज्ञानिक बनकर दर्शन किए नहीं, साम्प्रदायिक बनकर ही दर्शन करता रहा और इसीलिए ऊपर की शंकायें उत्पन्न हो रही हैं । अभिप्राय के तनिक से फेर से क्रिया में महान् अन्तर पड़ जाता है, अत: अभिप्राय को ठीक बनाकर आगे बढ़ । पहले ही इस दिशा में काफ़ी समझा दिया गया है तुझे । आ और देख इस प्रतिमा में जीवित देव।
(७) देवपूजा की बात चलती है । अन्तरंग व बाह्यपूजा का चित्रण खेंच दिया गया। तद्विषयक अनेकों प्रश्नों में से आज सातवां प्रश्न चलना है 'जड़ प्रतिमा के प्रति भक्ति कैसी?' अपनी इस भ्रांति को तज क्योंकि जड़ होते हुए भी प्रतिमा में जीवित देव देखे जा चुके हैं। पुनरपि उसी भाव को दृढ़ करता हूँ । आओ चलें, यह लो आ गया भगवान का समवशरण, गन्धकुटी पर विराजमान साक्षात् वीतराग देव । वह देखो सामने वीतराग प्रभु कितनी शान्तमुद्रा में स्थित हैं । वेदी में नहीं समवशरण में बैठे हैं । वेदी पर दृष्टि न कीजिए, केवल प्रतिमा पर लक्ष्य दीजिये, जैसे धनुर्धर अर्जुन की दृष्टि में कौवे की आँख ही आती थी, उसी प्रकार । ये जीवित ही तो हैं, जिन्हें वन में देखा था वही तो हैं। वही मुखाकृति, वही वीतरागता, वही सरलता, वही शान्ति, वही मधुर-मुस्कान, वही निश्चल-आसन, वही मौन, वही नासाग्र दृष्टि, वही निर्भीक नग्न-रूप, वही निश्चिन्तता, वही अलौकिक तेज, वही आकर्षण।
आहा हा ! धन्य हुआ जा रहा हूँ आज मैं, परम सौभाग्य से मिला है यह दुर्लभ अवसर । जिनके दर्शनों को बड़े-बड़े इन्द्र तरसते हैं सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्रों को भी जो सौभाग्य प्राप्त नहीं, आज मुझे वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आज मैं इस विश्व में सबसे ऊँचा हूँ। आज से पहले अधम था, नीच था, पापी था, पर आज ? आज न पूछिये । मुझे यह बताने को भी अवकाश नहीं कि आज मैं सर्वार्थसिद्धि के इन्द्रों से भी ऊँचा हूँ, आज मुझे कुछ अन्य बातें विचारने का अवकाश नहीं, किसी की बात सुनने का अवकाश नहीं, बोलने का अवकाश नहीं । अरे ! पलक झपकने तक का अवकाश नहीं है आज मुझे । अरे मन ! जरा चुप रह, देख नहीं रहा है कि आज देव आये हैं तेरे आँगन में । अरे ! जवाहरलाल नेहरू तेरे घर पर आ जायें तो पागल हो जाए, सोचने को भी अवकाश न रहे कि क्या करूँ और कहाँ बिठाऊँ इनको ? आज तीन लोक के पति, त्रिकालज्ञ, सर्वज्ञ पधारे हैं तेरे घर तो तुझे अपने राग अलापने को पड़ी है ? लाज नहीं आती? देखे-देख सावधान हो, प्रभ को बैठने के लिये स्थान बना । घबरा नहीं, तेरे पास है प्रभु के योग्य स्थान।
आइये नाथ. आइये । इस अधम का आंगन पवित्र कीजिये. यहाँ विराजिये, यहाँ विराजिये इस मेरे हृदय-मन्दिर में ! भगवन् ! देखिये तो कितना सुन्दर बनाया है इसे, सर्व संकल्प-विकल्पों का कूड़ा-कचरा निकाल कर कितना उज्ज्वल धुला-धुलाया तथा पवित्र पड़ा है यह, केवल आपकी प्रतीक्षा में कि कब आयें मेरे प्रभु और कृतार्थ करें मुझ अधम को। आहा हा ! मानो आज में सामान्य व्यक्ति नहीं हूँ, मेरे पाँव आज पृथ्वी पर नहीं पड़ते, मेरे घर में विराजे हैं त्रिलोकाधीश । आज मैं गर्व के मारे उड़ा जा रहा हूँ आकाश में । आज मेरे आंगन में भीड़ लगी है दर्शनार्थियों की । इन्हें भी यह सौभाग्य प्राप्त होगा। आप खड़े न रहिये भगवन् ! बैठ जाइये इस मन के जड़ित आसन पर, आपके लिये ही तो बिछाया है इसे । आहा हा ! आज पावन भये हैं नेत्र मेरे, मैं हुआ पूर्ण धनी । मेरा जीवन पावन हो गया, मेरा जन्म पावन हो गया, मेरा तन पावन हो गया, मेरा मन पावन हो गया, मेरा हृदय पावन हो गया, कृतकृत्य हो गया। मेरे आंगन पधारे हैं भगवान, शान्ति के देवता, मेरे उपास्य, मेरे लक्ष्य, मेरे आदर्श ।
__ अरे ठहर, ठहर रे मन ! अभी मत बोल, बीच में अपनी टांग अड़ाये बिना क्या एक क्षण भी नहीं बैठ सकता? बड़ा चञ्चल है तू ! ज़रा प्रभु की ओर देख, इतना निर्लज्ज न बन, कब-कब पधारते हैं ये तेरे घर ? सुन, तनिक कान लगाकर सुन, देख प्रभु मुझसे बातें कर रहे हैं । अरे तू भी तो अपना जीवन सफल बना ले, यह अवसर फिर मिलना कठिन है। अहा हा ! कितनी मिष्ट है प्रभु की वाणी मानो अमृत ही वर्ष रहा है। मेरी तो बात क्या, नरक में पड़े जीवों
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