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२३. देव-पूजा
६.शंका समाधान जिसका कारण सम्भवत: यह है कि आकृति-निरपेक्ष को देखकर मुझे बुद्धिपूर्वक उन कल्पनाओं को याद करने के लिये अधिक जोर लगाना पड़ता है और आकृति सापेक्ष को देखते ही वे कल्पनायें अबुद्धिपूर्वक स्वत: जागृत हो उठती हैं। खैर कुछ भी हो यहाँ तो केवल इतना सिद्ध करना था कि प्रतिमा का कोई प्रभाव न पड़ता हो ऐसा नहीं है, उसका हमारी बुद्धि पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।
उपरोक्त बातों पर से तीन सिद्धान्त निकलते हैं—एक तो यह कि किसी चित्र का मेरी मनोवृत्ति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, दूसरा यह कि किसी भी वस्तु में कल्पना-विशेष कर लेने पर उस वस्तु में मुझे तद्वत् सा ही भाव वर्तने लगता है, और तीसरा यह कि आकृति-सापेक्ष प्रतिमा से मेरे चित्त पर आकृति-निरपेक्ष प्रतिमा की अपेक्षा अधिक प्रभाव पड़ता है। जिस प्रतिमा को आज मैंने अपने सामने अपना उपास्य बनाकर रखा है उसमें यह तीनों ही बातें पाई जाती हैं। प्रतिमा तो वह है ही, चाहे पाषाण की हो या धातु की या लकड़ी की या कागज पर खिंची चित्ररूप । इसके अतिरिक्त उसमें वीतराग-आकृति का ज्यों का त्यों आकार या प्रतिबिम्ब भी विद्यमान है और मैंने अपनी कुछ विशेष कल्पनायें भी इसमें उण्डे ली हुई हैं, पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा विधान के द्वारा । अत: आज जीवित देव तथा उस प्रतिमा में मेरे लिए कोई अन्तर नहीं रह गया है।
(६) छठा प्रश्न यह है कि 'पत्थर में टक्कर मारने से क्या लाभ ?' भो कल्याणार्थी ! इस संशय को दूर कर, आ मेरे साथ और देख कि प्रतिमा में क्या दिखाई देता है । आज तक तूने इसे पाषाण की प्रतिमा के रूप में देखा है, आ आज मैं इसे जीवित रूप में दिखाता हूँ । आज तक प्रतिमा के दर्शन किये हैं, आ मैं जीवित देव के दर्शन कराता हूँ। अपनी दृष्टि से नहीं मेरी दृष्टि से देख कि यहाँ प्रतिमा कहाँ है, साक्षात् देव विराजमान हैं, जीवित देव, वही वीतरागी शान्तमुद्रा-धारी देव जिसके दर्शन कि परसों वन में किये थे। देख, गौर से देख, वही तो हैं। क्या अन्तर है इनमें तथा उनमें ? उनकी मुखाकृति भी सौम्य, सरल व शान्त थी और इनकी भी वैसी ही है; उनके होठों पर भी मीठी-मीठी मुस्कान थी और इनके होठों पर भी वैसी ही है; उनके शरीर पर भी वस्त्र नहीं था और इनके शरीर पर भी नहीं है ; उनके भी रोम-रोम से शान्ति टपकती थी और इनके भी रोम-रोम से शान्ति टपकती है; वे भी मौन थे और ये भी मौन हैं; वे भी निश्चल थे और ये भी निश्चल हैं; वे भी वन्दक व निन्दक में हर्ष-विषाद रहित समान थे और ये भी वैसे ही हैं। उनके दर्शन करने पर भी उनके चैतन्य का साक्षात्कार नहीं हो रहा था और इनके दर्शन करने पर भी चैतन्य का साक्षात्कार नहीं हो रहा है; ऊपर से वह भी जड़वत् भासते थे और ये भी वैसे ही दीख रहे हैं; वहाँ भी अनुमान के आधार पर शान्ति को पढ़ा जा रहा था और यहाँ भी अनुमान के आधार पर शान्ति को पढ़ा जा रहा है । अन्तर क्या है ? केवल इतना ही न कि वह चमड़े की प्रतिमा थी और यह है पाषाण की ? परन्तु वहाँ तो तेरी दृष्टि में चमड़ा न आकर देव ही आया था, एक शान्त जीवन ही आया था, यहाँ क्यों तेरी दष्टि में पाषाण आता है ? क्यों उसी दृष्टि से यहाँ भी नहीं देखता? इनका ऊपरी रूपन देखकर इनके अन्तरंग
और उन कल्पनाओं के आधार पर जो कि मैंने इनमें डाली हुई है, इनके जीवन को देखने का प्रयत्न कर । तब देखना कि ये जड़ दिखाई न देंगे, साक्षात् चेतन दिखाई देंगे।
__ कल्पनाओं में महान बल है, शेखचिल्ली कुछ कल्पनाओं के बल पर ही राजा बन बैठा और लात चला दी अपनी काल्पनिक स्त्री पर । शेखचिल्ली की बात न समझना, वास्तव में हम सब शेखचिल्ली हैं क्योंकि सुबह से शाम तक वैसी ही कल्पनायें किया करते हैं । “बेटा हो जायेगा, उसका विवाह कर देंगे, सुन्दर सी एक बहू घर में आयेगी, पोता हो जायेगा, मेरी गोद में आकर खेलेगा, तुतला-तुतलाकर बोलेगा, कितना प्यारा लगेगा, कुछ बड़ा होकर 'बाबा जी' कहकर पुकारेगा मुझे। अहा ! मानो में किसी दूसरे लोक में पहुँच जाऊँगा, कितना सुन्दर होगा वह दिन, कब आयेगा वह दिन ?" ये सब शेखचिल्ली की कल्पनायें नहीं तो क्या हैं ? परन्तु आनन्द ऐसा आता है मानो असली दृश्य ही सामने हो। एक-व्यभिचारी केवल कल्पनाओं के आधार पर अपनी प्रेमिका के घर पर पहुँच जाता है, और प्रेम से उसका अंग स्पर्शता हआ कल्पना में ही व्यभिचार-सेवन करता है । ये शेखचिल्ली की कल्पनायें नहीं तो क्या हैं ? परन्तु आनन्द ऐसा आता है मानो असली प्रेमिका का ही साक्षात् स्पर्श हो रहा हो । इसी प्रकार की अनेकों रागवर्धक कल्पनायें कर करके नित्य ही कभी हर्ष का और कभी विषाद का अनुभव किया करता हूँ । ऐसा होता सबको प्रतीत होता है, फिर भी
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