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________________ २३. देव-पूजा १४० ६.शंका समाधान देखने में नहीं आते, और न ही उनके साक्षात् निकट में होने की सम्भावना ही है । और यदि आसपास कहीं होते भी तो इतने बड़े विश्व में वे अकेले सबके प्रयोजन की सिद्धि कैसे कर सकते अर्थात् विश्व के सर्व व्यक्ति उनके दर्शन कैसे कर सकते ? व्यक्ति असंख्यात और देव एक । और यदि दो-तीन, दस-पांच आदि भी हों तो भी सभी की अभिलाषा पूर्ण न होती। यदि एक दिन के दर्शन मात्र से काम चल जाता तो भी सम्भवत: यह अभिलाषा जीवित-देव की उपस्थिति में शान्त हो जाती, परन्तु ऐसा नहीं है। यह अभिलाषा तो नित्य की है, और देव किसी एक या कुछ मात्र व्यक्तियों के लिये बन्धकर एक ही स्थान पर रहें, यह कैसे हो सकता है? इसलिये कोई भी कृत्रिम मार्ग निकालना होगा। हम मनुष्य हैं, बुद्धिमान हैं। तिर्यञ्च होते, पशु-पक्षी होते, तो सम्भवत: इच्छा होते हुए भी कुछ न कर सकते, परन्तु हम तो बहुत कुछ कर सकते हैं । अत: कृत्रिम देव की स्थापना कर अपना काम चला सकते हैं। उसी कृत्रिम देव का नाम प्रतिमा है। प्रतिमा अर्थात् देव की प्रतिकृति, उसका ही प्रतिबिम्ब। भले जड़ हो, पाषाण की हो, पर इस प्रकार की कोई भी प्रतिमा जिसकी आकृति उनके शरीर की बाह्य-आकृति के बिल्कुल सदृश हो, मेरे प्रयोजन की सिद्धि कर देती है। क्योंकि मेरा तथा आप सबका कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि किसी व्यक्ति का चित्र देखकर या उसका नाम सुनकर भी कुछ-कुछ उसी प्रकार के भाव चित्त में उत्पन्न होने लगते हैं जैसे कि उस व्यक्ति-विशेष के साक्षात होने पर उत्पन्न होते हैं। अपने विचारों पर जड चित्रों का यह प्रभाव में नित्य देखता हूँ। एक कागज पर खिंचे दुःशासन द्वास द्रौपदी का चीरहरण देखकर कुछ रोना सा आ जाता है। रानी झांसी व महाराणा प्रताप का चित्र देखकर मानो मेरी भुजायें फड़कने लगती हैं। अपने शत्रु का चित्र देखकर मन में कुछ द्वेष उत्पन्न हो जाता है । सिनेमा के परदे पर चलने-फिरने वाली उन कुछ प्रकाश की रेखाओं मात्र को एक क्षणिक चित्र के रूप में देखने से क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है । यदि कुछ न हुआ होता तो धन खर्च करके देखने वाले व्यर्थ ही वहाँ नींद न खोते। कभी किसी चित्र-विशेष को देखकर मुझे रोना आ जाता है और कभी हँसी। क्या कारण है ? वह भी तो चित्र ही है, जड़ चित्र, जो एक क्षण भी सामने टिकता नहीं। किसी के प्रति द्वेष हो जाने पर उसके चित्र की अविनय करने का भाव क्यों आता है मेरे हृदय में? काग़जपर खिंची दो-चार लकीरें ही तो हैं। स्वयंवर में संयोगिता ने पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में माला क्या समझकर डाल दी थी ? अपने उपास्य-देव या स्वयं अपने चित्र को जूतों में पड़ा देखकर क्यों दुःख सा होने लगता है मुझे? अपने कमरों को चित्रों के द्वारा क्यों सजाता हूँ मैं ? यदि सजाऊं भी तो जो कोई भी चित्र क्यों टांग नहीं देता, अपनी रुचि के अनुसार ही क्यों टांगता हूँ? इत्यादि सर्व दृष्टांतों पर से एक जड़ चित्र का मेरे मन पर कितना बड़ा प्रभाव पड़ता है, यह बात स्पष्ट हो जाती है। वैसे ही देव के चित्र को देखकर स्वाभाविक रीति से ही मेरे मन पर कुछ अद्वितीय प्रभाव अवश्य पड़ता है। इस प्रभाव में और भी कई गुनी वृद्धि हो जाती है, जबकि मैं इसमें अपनी कुछ विशेष कल्पनायें उण्डेल देता हूँ। दस-पांच सूत के धागों की बनी इस देश की ध्वजा को ऊंचे पर लहराते देखकर मानो मेरा रोम-रोम फूल उठता है, और इस छोटे से वस्त्र के टकडे को अपमानित होता देखकर मझे स्वत: क्रोध आ जाता है। क्या कारण है ? किसी जानकार व्यक्ति की तो बात नहीं, किसी व्यक्ति का या देश, नगर, ग्रामादि का चित्र भी तो नहीं है यह, केवल एक कपड़े का टुकड़ा ही तो है। परन्तु ऐसी बात चित्त में होती अवश्य है, और जिस बात का साक्षात् वेदन हो उससे नकार कैसे किया जा सकता है ? इसका कारण यही है कि बजाज की दुकान पर रहने तक ही वह साधारण वस्त्र था, परन्तु आज मेरी कुछ कल्पनाओं का आधार होने के कारण वह साधारण वस्त्र नहीं रहा है । वह बन गया है देश की लाज । यह शक्ति उस जड़ वस्त्र में नहीं बल्कि मेरी कल्पनाओं में है। इसी प्रकार पत्थर या लकड़ी के टुकड़े आदि में भी मैं देव की कल्पना करके उसी प्रकार का भाव उत्पन्न कर सकता हूँ जैसा कि जीवित देव को देखने से होता है, और यदि वह पत्थर व लकड़ी का टुकड़ा देव की आकृति के अनुरूप हो तो सोने पर सुहागा है । आकृति-सापेक्ष और आकृति-निरपेक्ष दोनों ही प्रकार की प्रतिमायें आज हमारे देखने में आती हैं । शतरंज के खेल में लकड़ी की कुछ गोटों में हाथी घोड़े व राजा आदि की कल्पना की जाती है । वह आकृति-निरपेक्ष है और वीतरागी शान्त-देव की प्रतिमा आकृति-सापेक्ष है। परन्तु आकृति-सापेक्ष का जो प्रभाव सहज ही पड़ता प्रतीत होता है वह आकृति-निरपेक्ष में अनुभव करने में नहीं आता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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