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२३. देव-पूजा
६.शंका समाधान "तो क्या हुआ? प्रभु की कृपा है, जाओ अपना काम करो।" वही दो शब्द, वही सन्तोष, वैसी ही शान्त मुखाकृति, वैसी ही पूर्ववत् काम में संलग्नता, मानो कुछ हुआ ही नहीं। आज तो जिज्ञासु के आश्चर्य का पारावार न रहा। उसे मिल चुका था वह उपदेश जिसके लिए वह गुरु के पास गया था, साम्यता का आदर्श । चुप रहा न गया उससे और पूछ ही बैठा
___ “सेठ जी ! मैं क्या देख रहा हूँ, कुछ अनोखी सी बात ? चार करोड़ की हानि में भी वही बात और १० करोड़ लाभ में भी वही बात ? कुछ विश्वास नहीं आता।" तुझ को आश्चर्य हो रहा है जिज्ञासु परन्तु इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। “मेरी दृष्टि को न पहिचान सकना ही इसका कारण है। लाभ-हानि का मेरी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं, क्योंकि बाहर से सर्व आडम्बर का स्वामी भले दीख रहा हूँ, पर अन्तरङ्ग में मैं केवल इसका मैनेजर हूँ, व्यापार तो प्रभु का है। सारे विश्व में उसके व्यापार की अनेकों शाखाएँ हैं। कभी इस शाखा से वह रुपया उस शाखा में भेज देता है और कभी उस शाखा से इस शाखा में । मैं तो केवल नाम लिख देता हूँ, या जमा कर लेता हूँ। और बातों से मुझे क्या मतलब?” समझ गया जिज्ञासु साम्यता का रहस्यार्थ, जो शब्दों पर से तीन काल में भी समझना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार पूर्ण-आदर्श जीवन पर से समझी जा सकती है पूर्ण-शान्ति ।
(४) चौथा प्रश्न भी बहुत सुन्दर है कि 'पूजा में कर्त्तावाद क्यों?' जब बिना अपनी शान्ति दिए वह मुझे शान्ति का स्वाद नहीं चखा सकते तब यह कैसे कहा जा सकता है कि हे प्रभु ; मुझे शान्ति प्रदान कीजिये? जैसा कि ऊपर बता दिया गया है वह अपनी शान्ति का स्वयं उपभोग करने में समर्थ है मझे देने में नहीं: तदपि उपरोक्त प्रकार अनुमान के आधार पर शान्ति-सम्बन्धी कुछ परिचय प्राप्त करके मैं अपने जीवन में तथा अपने सम्भाषण में वैसे-वैसे ही रूप से वर्तने का प्रयत्न करने लगा हूँ, उसकी मुखाकृति पर से उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि का अनुमान करके स्वयं भी अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करने लगता हूँ, जैसा कि आगे के प्रकरण में स्पष्ट हो जाएगा। अपने इस प्रयत्न में दृढ़ रहते हुए कुछ समय पश्चात् स्वयं उस अमृत का स्वाद अवश्य चख सकता हूँ । इतनी ही कुछ मेरे प्रयोजन में उससे सहायता मिलती है और इस सहायता के कारण ही 'यह शान्ति उसने दी है' ऐसा कहा जा सकता है, जो केवल उपचार है।
कर्तावाची उपरोक्त शब्दों को सैद्धान्तिक न समझकर भक्ति-परक समझना चाहिए। इन शब्दों को सत्यार्थ मानकर प्रभु को शान्ति या अशान्ति का अथवा दुःख या सुख का देने वाला समझ बैठना भ्रम है, पुरुषार्थहीनता है,
है। ऐसा समझने वाला व्यक्ति सच्चे-देव को आदर्श रूप से स्वीकार कर लेने पर भी शान्ति की प्राप्ति नहीं कर सकता। 'देव ही प्रसन्न होकर मेरा प्रयोजन सिद्ध कर देंगे, मुझे स्वयं कुछ करना न पड़ेगा', ऐसा अभिप्राय रखने के कारण वह न अपने जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन करने का प्रयत्न करेगा, और न उसे वह प्राप्त होगी।
स्वयं अपने उद्यम द्वारा अपने में से उत्पन्न की गई होने पर भी, बहुमानवश कृतज्ञता प्रकट करने के लिए तथा उस उत्कृष्ट आदर्श के सामने अपनी इस हीन-दशा को रखकर दोनों में महान अन्तर देखने के कारण, यह कहने में अवश्य आता है कि “यह महान विभूति आपने ही प्रदान की है, यदि आप न देते तो मझ अधम के द्वारा यह प्राप्त की जानी कैसे सम्भव होती", इत्यादि । बिल्कुल उसी प्रकार जैसे कि बहुमान-सम्बन्धी कल के दृष्टान्त में सेठ पुत्र के मुख से अपने चचा के प्रति कहा गया था, और आप भी निरभिमानता दिखाने के अर्थ जिस प्रकार ऐसा कहते सुने जाते हो कि “आपकी कृपा से ही सफल हो जाएगा यह काम, यह आपका ही बालक है, यह आपका ही मकान है" इत्यादि । शब्दों में कहे जाने पर भी उनका अर्थ वैसा नहीं होता जैसा कि शब्दों पर से ध्वनित होता है । बस तो इसी प्रकार भक्ति के सम्बन्ध में भी समझना । भक्ति, निराभिमानता व कृतज्ञतावश प्रभु को शब्दों में अपने ऊँच-नीच कर्मों के कर्ता-हर्ता कहने में भले आये, पर उसका अर्थ यह ग्रहण नहीं करना चाहिए कि वे कुछ दे रहे हैं या दे देंगे।
(५) प्रतिमा विषयक देव पूजा के प्रकरण में यह पाँचवां प्रश्न है कि 'पूजा में प्रतिमा की आवश्यकता क्यों ? प्रश्न बहुत सुन्दर व स्वभाविक है, तनिक विचार करने पर उत्तर भी अपने अन्दर से लिया जा सकता है। वास्तव में ही प्रतिमा की आवश्यकता न होती, यदि साक्षात् देव मेरे समक्ष होते । साक्षात् की तो बात नहीं, यहाँ तो आस-पास भी
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